तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशम अधिशास्ता-शांतिदूत-अहिंसा यात्रा के प्रणेता-महातपस्वी आचार्यश्री आदि महाश्रमणजी ने अपने मंगल प्रवचन में फरमाया कि अहिंसा धर्म का एक लक्षण होता है अर्थात् अहिंसा में धर्म है।
हिंसा चाहे भावनात्मक हो या द्रव्यात्मक कैसी भी हो हिंसा हिंसा ही होती है। आचार्य प्रवर ने फरमाया कि कोई जीव अपने आयुष्य बल से जीता है उसका जीना हमारी दया नहीं है। उसी प्रकार अगर कोई आयुष्य बल के समापन होने से मरता है तो वह हिंसा भी नहीं है।
कोई अगर किसी को सलक्ष्य मारता है तो वह हिंसा का भागीदार है और किसी को नहीं मारने का संकल्प अहिंसा है। जहां अहिंसा होती है वहां धर्म होता है अहिंसा अपने आप में उर्द्धव गति का मार्ग और हिंसा अधोगति का मार्ग होती है। कई बार सही समय पर सही उपदेश देने से हिंसक आदमी हिंसा को छोड़ सकता है।
आचार्य प्रवर ने फरमाया कि एक हिंसक व्यक्ति की कमाई लेने में सभी तैयार हो जाते हैं परंतु उस हिंसक कार्य का फल भोगने में कोई साथ नहीं आता है चाहे वह पुत्र, परिवार या मित्र हो। व्यक्ति को अपनी बुराई का फल स्वयं ही भोगना पड़ता है क्योंकि कर्म कर्ता का अनुगमन करता है, दूसरों का नहीं। जहां अहिसा होती है वहां क्षमाशीलता, सहनशीलता और धैर्यशीलता स्वतः परिलक्षित हो जाती है।
आचार्य प्रवर ने मुनि मेतार्यकुमार की सहनशीलता का कथानक भी सुनाया। जिस आदमी में कष्ट के प्रति धृति नहीं होती है उसमें अहिंसा संभव नहीं हो पाती है।
सभी आचार्य प्रवर ने धनतेरस के उपलक्ष में फरमाते हुए कहा कि सांसारिक व्यक्तियों के लिए भौतिक धन का महत्व होता है परंतु धर्म का धन भी बढ़ना चाहिए। धर्म रूपी धन को पैसे से खरीदना असंभव होता है इसको साधना के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है।
आचार्य प्रवर ने सभी के प्रति शारीरिक स्वास्थ्य एवं आध्यात्मिक स्वास्थ्य की मंगल कामना की। शारीरिक स्वास्थ्य के बारे में फरमाते हुए कहा कि आचार्य महाप्रज्ञ जी का शारीरिक स्वास्थ्य अद्भुत था। उन्होंने जीवन के नौवें दशक में लंबी यात्राएं की यह अपने आप में विशिष्ट बात है। आचार्य प्रवर के चातुर्मास मंगल भावना के क्रम में श्री संजय बांठिया, श्री शांतिलाल बाबेल, श्री बंसीलाल पितलिया, श्री कमल दूगड़ एंवम् श्री उत्तमचंद गन्ना ने अपने भाव व्यक्त किए।