साध्वी जयश्री जी ने बताया कि ज्ञान प्राप्त करने के लिए कुछ विशिष्ट गुणों का होना आवश्यक
शिवपुरी। मनुष्य पंचेंद्रिय जीव है। हम हिंसा से कितना भी बचें, लेकिन भोजन बनाने के लिए एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा होती ही है। क्योंकि पानी, हवा, अग्रि, वनस्पति सभी एकेन्द्रिय जीव हैं। लेकिन हिंसा से बने भोजन को अमृत बनाना हमारे हाथ में है। हम चाहें तो भोजन को जहर भी बना सकते हैं।
उक्त उद्गार प्रसिद्ध जैन साध्वी नूतन प्रभाश्री जी ने पोषद भवन में आयोजित धर्मसभा में व्यक्त किए। धर्मसभा में साध्वी जयश्री जी ने बताया कि ज्ञान प्राप्त करने के लिए विनम्रता, सरलता, सज्जनता और निष्कपटता होना अत्यंत आवश्यक है। उन्होंने यह भी बताया कि किन-किन व्यक्तियों को दीक्षा नहीं दी जा सकती। साध्वी वंदनाश्री जी ने सभा के शुभारंभ में सुंदर भजन का गायन कर माहौल को धर्म रस से सराबोर कर दिया।
धर्मसभा में साध्वी नूतन प्रभाश्री जी ने बताया कि हमारा भोजन हमारे लिए जहां स्वास्थ्यवर्धक है वहीं यह हमारे पुण्यों में वृद्धिकारक भी है। अनिवार्य हिंसा से बने भोजन को अमृत तुल्य बनाकर सेवन करना चाहिए। उन्होंने कहा कि भोजन बनाते समय हमारी भावना शुद्ध नहीं है और क्रोध की स्थिति है तो ऐसी स्थिति में भोजन अमृत नहीं, बल्कि जहर बनेगा। भोजन को हर धर्म और संस्कृति में अन्न देवता कहा गया है।
सनातन में भी आहार लेने से पूर्व भोजन को प्रणाम किया जाता है। जब भी भोजन करें तब मन में शुद्ध, सात्विक और निर्मल भाव हो। उन्होंने बताया कि भोजन की थाली जब सामने आए तो भगवान को याद करो। अपने-अपने आराध्य और ईष्ट देव का पांच बार स्मरण करो।
मन में यह भावना हो कि कोई अतिथि या संत मेरे घर पधारें तो मैं उन्हें आहार दान करुं। उन्होंने कहा कि दूसरों को खिलाने की भावना यदि मन में हो तो भोजन अमृत तुल्य हो जाता है। साध्वी नूतन प्रभाश्री जी ने बताया कि पहले भोजन की थाली को पाटे पर रखा जाता था, यह भोजन का सम्मान है। दान दो फिर भोजन करो। उन्होंने बताया कि अन्न के एक-एक कण का हमें सम्मान करना चाहिए और झूठा बिल्कुल नहीं छोडऩा चाहिए।
चाहे हम घर में भोजन करें या बाहर किसी समारोह या पार्टी में। उन्होंने कहा कि अभयदान या भोजन के सुपात्र दान से आत्मा से परमात्मा बनने की सामथ्र्य आ जाती है। धर्मसभा में साध्वी जयश्री जी ने बताया कि क्रोधी, कपटी, ज्ञान के प्रति रूचि ना रखने वाला, आलसी और कपटी व्यक्ति दीक्षा के अयोग्य होता है। धर्म के पथ पर अग्रसर होने के लिए निरोगता, बुद्धि, विनय, पुरुषार्थ, शास्त्र रूचि, मन की स्थिरता आदि गुण होने चाहिए।
दूषित भाव और दूषित आहार का दान बनता है नरक का कारण
साध्वी नूतन प्रभाश्री जी ने जैन शास्त्र में वर्णित नागश्री नामक महिला की कथा सुनाते हुए कहा कि उसने दूषित और जहरीली सब्जी अनजाने में बना ली थी और सब्जी बनने के बाद जब उसने उसका सेवन किया तो वह कड़वी निकली। इसके बाद घरवालों के आक्रोश से बचने के लिए उक्त महिला ने एक माह के व्रत के बाद आहार के लिए निकले एक संत को वह सब्जी भेंट कर दी।
उक्त संत के गुरू ने जब वह सब्जी देखी तो उन्होंने तपस्वी संत से कहा कि इस दूषित सब्जी को ऐसी जगह डालो जहां कीड़े, मच्छर आदि ना हों, लेकिन संत को ऐसी कोई जगह ना मिली। उन्होंने सोचा कि हजारों की जीवों की हिंसा से बेहतर है कि मैं खुद इस सब्जी का सेवन कर लूंं।
जहरीली सब्जी खाकर उक्त संत ने संथारा कर अपने प्राण त्याग दिए। दूषित भावना और दूषित द्रव्य के दिए जाने का परिणाम यह हुआ कि उक्त नागश्री नामक महिला को सुपात्र दान देने के बाद भी नरक भोगना पड़ा। साध्वी जी ने इस उदाहरण से बताया कि दूषित भाव और दूषित आहार के सुपात्र दान देने से स्वर्ग का नहीं, बल्कि नरक का दरबाजा खुलता है।