क्रमांक – 4
. *तत्त्व – दर्शन*
*🔹भारतीय दर्शन में सत् का स्वरूष*
*👉 ‘सत्’ शब्द अस्तित्व का वाचक है। विश्व में जितने भी अस्तित्ववान पदार्थ हैं, वे सब सत् हैं। जड़ और चेतन-दोनों प्रकार के पदार्थों का समावेश सत् में हो जाता है। इस दृष्टि से सत्, वस्तु, तत्त्व, द्रव्य, पदार्थ एक ही अर्थ के बोधक शब्द हैं।*
*सत् के स्वरूप के सन्दर्भ में भारतीय दर्शन में पांच मान्यताएँ हैं-*
*1. सत् का स्वरूप कूटस्थ नित्य है। उसमें परिवर्तन नहीं किया जा सकता। वेदान्त दर्शन इस सिद्धान्त का समर्थक है।*
*2. सत् का स्वरूप अनित्य है। वह हर क्षण परिवर्तनशील है। बौद्ध दर्शन इस सिद्धान्त का समर्थक है।*
*3. चेतन सत् (पुरुष) कूटस्थ नित्य तथा अचेतन सत् (प्रकृति) परिणामी नित्य है। सांख्य दर्शन इस सिद्धान्त का पोषक है।*
*4. परमाणु, आत्मा आदि कुछ सत् कूटस्थ नित्य तथा घट-पट आदि कुछ सत् अनित्य हैं। इस मत के समर्थक न्याय-वैशेषिक हैं।*
*5. सत् पदार्थ न एकान्ततः नित्य और न एकान्ततः अनित्य हैं अपितु परिणामीनित्य अर्थात् नित्यानित्य हैं। यह मंतव्य जैन दर्शन का है।*
*जैन दर्शन में विभिन्न दृष्टियों से तत्त्व का विवेचन हुआ है। जीव और अजीव इन दो तत्त्वों को स्वीकार करने के जैन दर्शन को द्वैतवादी दर्शन भी कहा जाता है। स्थानांगसूत्र और द्रव्यसंग्रह में दो तत्त्वों का विवेचन है। दूसरी दृष्टि से जीव अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष सात तत्त्व की अवधारणा है। तीसरी दृष्टि से पाप, पुण्य को स्वतंत्र मानकर नव तत्त्व माने गये हैं। जिन ग्रंथों में सात तत्त्वों का विवेचन हुआ है वहां पुण्य-पाप को बन्ध में समाहित किया गया है। अधिकतर आगम ग्रंथों में नवतत्व और नवपदार्थ का वर्णन उपलब्ध होता है। वे नौ तत्त्व इस प्रकार है- 1. जीव 2. अजीव 3. पुण्य 4. पाप 5. आश्रव 6. संवर 7. निर्जरा 8. बंध और 9. मोक्ष।*
*क्रमशः ………..*
*✒️ लिखने में कोई गलती हुई हो तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं।*
विकास जैन।