अनेकों जिज्ञासाओं का दिया समुचित समाधान
Sagevaani.com @चेन्नई; श्री मुनिसुव्रत जिनकुशल जैन ट्रस्ट के तत्वावधान में श्री सुधर्मा वाटिका, गौतम किरण परिसर, वेपेरी में शासनोत्कर्ष वर्षावास में धर्मपरिषद् में आज शनिवारीय प्रवचन में धर्म, जीवन से सम्बंधित प्रश्नों का समुचित समाधान देते हुए गच्छाधिपति आचार्य भगवंत जिनमणिप्रभसूरीश्वर म. ने कहा कि जिस व्यक्ति के भीतर में कभी भी, कहीं भी, परिस्थितियों से जिज्ञासा पैदा होती है।
जिज्ञासा उसी के हृदय में पैदा होती है 1. जो मानता है कि अभी मेरे भीतर सम्पूर्ण ज्ञान पैदा नहीं हुआ (अपनी अज्ञानता की खबर है) और 2. ज्ञानी होने के रास्ते की और कदम बढ़ाने की खबर है। जिज्ञासा से वर्तमान स्थिति का पता चलता है कि मेरे भीतर बहुत अभी शंकाएं है, अज्ञानता है, इसी कारण मेरे भीतर प्रश्न पैदा होते है। वही उज्जवल भविष्य के रूप में जिज्ञासा होना इस संकल्प को बताता है कि मुझे ज्ञानी होना है।
◆ गुरु भगवंत सान्निध्य से ही मूल आगम का करें स्वाध्याय
आचार्य प्रवर ने जिज्ञासा का समाधान देते हुए कहा कि वे ही साधु आगम वाचन के अधिकारी है, जिन्होंने योगोद्हम किया है। आगम प्राकृत और संस्कृत भाषा में लिपिबद्ध है। शब्द अपने आप में बहुत अर्थवान है। अर्थवान होने के साथ अनेकों शब्द के अर्थ होते है। इसलिए गुरु भगवंत से ही आयम्बिल इत्यादि साधना के साथ शब्द ग्रहण किये जाते है। अर्थ गहण किये जाते है और गुरुवर से अनुज्ञा लेकर ही दुसरों को बता सकते है।
प्राकृत और संस्कृत भाषा का सम्पूर्ण ज्ञान नहीं होने और शब्दों का सही अर्थ नहीं ज्ञात होने के कारण श्रावक श्राविकाएं हिन्दी भाषा में लिपिबद्ध आगामों को पढ़ सकते है। एक ही शब्दों के अनेकों अर्थ हो सकते है। सम्पूर्ण जानकारी नहीं होने के कारण कभी कभी आगामों में वर्णित किसी शब्द का अलग अर्थ निकल जाने से अनर्थ हो सकता है। अनेकों घटना प्रसंगों के साथ कहा कि आगम संवेदनशील होते है, इसलिए हर किसी को मूल भाषा में आगामों को पढ़ने की मनाई की जाती हैं। नवतत्वों एवं अन्यों का स्वाध्याय किया जा सकता है।
◆ जैन समाज शुद्धता के साथ जीने वाला
आचार्य भगवंत ने कहा कि हमें अपने जैन समाज पर गर्व का अनुभव होता है कि हमारे साधु साध्वी श्रावक श्राविका सम्पूर्ण रुप से जीवदया का पालन करते है, हमारा जैन समाज शाकाहारी है, शुद्धता के साथ जीता है। अगर कही कमी है तो उसको बनाए रखने की जिम्मेदारी घर वालों की है। परमात्मा महावीर ने कहा था कि बिना आहार के भी साधु के लिए किसी भी परिस्थिति में मांसाहार सेवन वर्जित है, चाहे उसको अपने प्राणों का भी विसर्जन करना पड़े। हमारे धर्म को प्राणवान बनाने वाले युवा है, अपने संस्कारों को प्राणवान बनाने के लिए, अपनी परम्परा को सृदृढ़ बनाना चाहिए।
◆ भाग्य के साथ पुरुषार्थ जरूरी
आचार्य श्री ने कहा कि अरिहंत हमें प्रत्यक्ष रुप से अध्यात्म का मार्ग बताने वाले होते है, इसलिए सिद्धों से पहले हम अरिहंतों को वन्दना करते हैं। कोई भी कार्य की सम्पन्नता में पांच समवाय- “काल, स्वभाव, नियति, कर्म और पुरुषार्थ” का योग जरूरी है। मात्र भाग्य से ही हर कार्य नहीं बनते जबकि पुरुषार्थ का होना जरूरी है। भाग्य का निर्माण करने वाला है- पुरुषार्थ। महत्व पुरुषार्थ का है। भाग्य केवल स्वीकार करने के लिए हैं। हमें फल मिले या नहीं मिले, लेकिन स्वभाविक रुप से पुरुषार्थ जरूर करना चाहिए।
समाचार सम्प्रेषक : स्वरूप चन्द दाँती