तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशम अधिशास्ता-शांतिदूत-अहिंसा यात्रा के प्रणेता-महातपस्वी आचार्य श्री महाश्रमण जी ने अपने मंगल प्रवचन में फरमाया कि अहिंसा महान धर्म है। इसे साधने के लिए शर्त है कि अभय को साधा या नहीं। अभय की साधना के बिना अहिंसा की साधना नहीं हो सकती है।
भयभीत व्यक्ति अहिंसा की साधना नहीं कर सकता है। जिस प्रकार प्रकाश और अंधकार एक साथ नहीं रह सकते उसी प्रकार अहिंसा और भय साथ नहीं रह सकते हैं । आचार्य प्रवर ने फरमाया कि जहां अभय रूपी प्रकाश नहीं है वहां हिंसा रूपी अंधकार फैल जाता है और जिस देश में साहित्य नहीं है वहां की संस्कृति मृत प्रायः हो जाती है। अभय का संदेश हम सभी के लिए हैं।
व्यक्ति के जीवन में अनेक प्रकार के भय बीमारी, मौत, अपमान आदि के आते रहते हैं। और जो डरा हुआ होता है उसे लोग ज्यादा डराते हैं। हमें अपने जीवन में भय से ऊपर उठने का प्रयास करना चाहिए। कितनी ही चाहे काली रात हो अगर दीपक हाथों में हो तो चारों तरफ उजाला फैल जाता है। दुनिया के दीपक अगर धोखा भी दे दे और अगर व्यक्ति के मन में साहस और अभय का दीपक जलता रहे तो व्यक्ति हर समस्या का समाधान पा सकता है।
डरपोक व्यक्ति के मन में हिंसा की भावना होती है। कभी-कभी प्रत्यक्ष रूप से हिंसा न होकर मन से भी किसी के प्रति हिंसा का भाव आए तो उससे भी पाप का बंधन होता है, इससे भी बचने का प्रयत्न करना चाहिए। अतः सभी को मन और तन दोनों से अभय की साधना करनी चाहिए जिससे अहिंसा की साधना पुष्ट हो सकती है और जीवन सुखमय बनता है।
साध्वीवर्या सम्बुद्धयशाजी ने अपने उद्बोधन में कहा कि जो व्यक्ति अध्यात्म की यात्रा करता है उसे समयक्तव का प्रकाश अगर मिल जाए तो उसकी यात्रा सफल हो जाती है। समयक्तव को आध्यात्म की नींव माना गया है इसके बिना मुक्ति असंभव होती है। यथा तत्व पर यथा श्रद्धा बनी रहे तो सम्यक दर्शन पुष्ट हो सकता है।
आचार्य महाश्रमण चतुर्मास व्यवस्था समिति की तरफ से कृतज्ञता ज्ञापन के क्रम में श्री सुरेश दक, सुरेश नाहर सुभाष डागा, श्रीमती पवन संचेती, श्रीमती सरोज बैद ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी। महाप्रज्ञ पब्लिक स्कूल मुंबई के बच्चों द्वारा गीत की प्रस्तुति दी गई। महासभा के पूर्व अध्यक्ष श्री किशनलाल डागलिया ने अपने उदगार आचार्य प्रवर के समक्ष व्यक्त किए।