जयतिलक जी मरासा ने रायपुरम जैन भवन में प्रवचन में फ़रमाया कि करुणा के सागर भगवान महावीर ने भव्य जीवों को भवसागर से तिरने का उपदेश दिया और जिनवाणी रूपी गंगा प्रवाहित की। कार्तिक सुद पंचमी ज्ञान पंचमी कहलाती है इसको जितनी शुद्ध रखते है उतना ही ज्ञान पवित्र होता है। इससे मुख मे सरस्वती का रूप है। जैन धर्म मे ज्ञान को महत्व दिया। सभी आत्मा में अनन्त ज्ञान है उस पर कर्मो का आवरण आया हुआ है। जो ज्ञान को ढंक दिया – कांच (दर्पण) मे अपना चेहरा देख सकते है।
यदि उस पर मिट्टी का आवरण आ गया तो उसमे चेहरा नही देख सकते इस धूल को हटा दिया जाए तो चेहरा देखने मे समर्थ हो जाएगा उसी प्रकार हर आत्मा दर्पण की भांति है हर आत्मा में गुण को जानने की क्षमता है किन्तु कर्मों के आवरण के कारण चेहरा नही देख सकते है। उसी प्रकार हर आत्मा दर्पण की भांति है। हर आत्मा को गुण पर्याय जानने की क्षमता है। किंतु कर्मों के आवरण के कारण अनर्थ हो जाएगा । उसमे दर्पण की भाँति अन्य गुण पर्याय, लोका लोक को देखने की क्षमता आ जाएंगी।”
ज्ञानावरणीय कर्म – ज्ञान की आराधना करे ज्ञानियों का विनय करे। विनय के बिना प्राप्ति नहीं हो सकती। उत्तराध्ययन सूत्र ज्ञान में ज्ञान प्राप्ति का पहला साधन विनय गुण है। विनम्र का नाश करने वाला अवगुण अहंकार है ।
ज्ञानी की अशातना करने से कर्म को तोड़ना दुर्लभ है। 14 पूर्व ज्ञान के अहंकार से नरक निगोद में जा सकते हैं। अपने- अपने सामर्थ्य के अनुसार संसार के हर जीव मे ज्ञान है। थोड़ा ज्ञान प्राप्त कर लिया थोडी डिग्रियां प्राप्त कर ली फुला नही समाता। याद रखो अगले भव मे ज्ञान के साधन नही मिलेंगे पाचों इन्द्रिया मिलेगी पर सामर्थ्य नहीं मिलेगा। उनसे जो ज्ञान प्राप्त होता है वह ज्ञान की वस्तु भी हमे ज्ञान देती है। कहीं एक वाक्य को पढ़कर बहुत बडी आपत्ति से बचा जा सकता है।
कोई ज्ञान सीख रहा है तो उसमे बाधा नही डाले । इससे हमारे को बाधा आएगी शरीर साथ नहीं देगा आलस आएगा। आलतु फालतु बाते याद आएगी। स्वयं की बाधा ही उसके उदय मे आएगी। कोई मन लगाकर पढ़ता है तो उसके पढ़ते हुए मन को भंग कर दिया कभी पढ़ने मे मन नही लगता है।
ज्ञानियो के साथ झूठा विवाद नही करना । ज्ञानी सही बोल रहा है फिर भी गलत शब्दो का प्रयोग करके उन्हें बाधा पहुचा रहे है ।
यह जानकारी नमिता संचेती ने दी।