जैन साध्वी जी ने बताया कि पंडित मरण से होती है जीव की सदगति
Sagevaani.com /शिवपुरी ब्यूरो। जन्म लेने वाले जीव का मृत्यु को प्राप्त करना निश्चित होता है। लेकिन अपने जन्म और मृत्यु को सार्थक करने की साम्र्थय सिर्फ मनुष्य में है। भगवान महावीर ने हमें जहां जीने की कला सिखार्ई है वहीं वह मृत्यु की कला भी सिखाते हैं। भगवान महावीर के अनुसार जीवन उत्सव है वहीं मृत्यु महोत्सव है उक्त वात प्रसिद्ध जैन साध्वी नूतन प्रभाश्री जी ने ओसवाल गली स्थित कमला भवन में आयोजित एक विशाल धर्मसभा में कही। साध्वी नूतन प्रभाश्री जी इन दिनों भगवान महावीर की अंतिम देशना जो उत्तराध्यन सूत्र में वर्णित है का वाचन कर रही हैं।
साध्वी जी ने बताया कि उत्तराध्यन सूत्र जैन दर्शन की महागीता है। धर्मसभा में साध्वी जयाश्री जी ने हे महावीर तेरे भक्त हम, तेरे पथ पर चलें हमारे हर कदम भजन का गायन कर भगवान महावीर की गरिमा को रेखांकित किया। इसके बाद साध्वी नूतन प्रभाश्री जी ने अपने प्रवचन में बताया कि हमारा जीवन तब सार्थक माना जाएगा जब हम अपनी मृत्यु को महोत्सव बना लें। उन्होंने कहा कि मृत्यु से हमें डरना नहीं है क्योंकि मरना सुनिश्चित है। लेकिन मृत्यु अर्थात देह त्याग की तैयारी हमारे पास पर्याप्त होनी चाहिए ताकि मृत्यु महोत्सव बन सकें।
उन्होंने बताया कि जैन दर्शन में अंतिम समय में संथारे की परंपरा है। संथारा आत्म हत्या नहीं है, उन्होंने बताया कि आत्महत्या कर जो मृत्यु को प्राप्त करते हैं उनका बाल मरण होता है और ऐसे जीव की सदगति नहीं होती। परन्तु संथारे में जीव मरने से पहले 18 पापों की आलोचना करता है। अपने एक-एक पाप का याद कर उनके लिए पश्चाताप करता है। चार कषाए काम, क्रोध, मोह, लोभ आदि का परित्याग करता है। संसार के समस्त प्राणियों के प्रति शुद्ध भाव निभाता है। व्रत्त, त्याग और पचक् खान करता है। दान पुण्य में रत रहता है। इसके बाद चारों आहारों का त्याग कर मृत्यु को प्राप्त करता है। इस तरकीव से मृत्यु को प्राप्त करना संथारा है और संथारे से मृत्यु को वरण करना पंडित मरण है।