कोडमबाक्कम वडपलनी श्री जैन संघ प्रांगण में आज बुधवार तारीख 12 अक्तूबर को परम पूज्य सुधा कवर जी मसा आदि ठाणा 5 के सानिध्य में सुयशा श्रीजी मसा ने माता मरुदेवी, उनके पुत्र प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव, पौत्र भरत चक्रवर्ती एवं पड़पौत्र मरीची की कथा सुनाई!
एक वृक्ष बड़ा बनने में और उसकी छाया सभी राहगीरों को मिलने में बहुत समय लगता है! वैसे ही एक तीर्थंकर बनने में बहुत सारे भव, बहुत सारे उपसर्ग, बहुत सारी त्याग तपस्या लगती है! मरीची ने अपने दादा भगवान ऋषभदेव को अपनी परदादी मरूदेवी के शब्दों से ही महसूस किया था! एक बार भगवान ऋषभदेव का उस नगर में पदार्पण होता है! नगर के सभी अमीर गरीब नगर सेठ और श्रेष्ठी उनके दर्शनार्थ जाते हैं! भरत चक्रवर्ती भी अपनी दादी, माता मरूदेवी को, कहते हैं कि आपका बेटा आ गया और उनके दर्शनार्थ उन्हें अत्यंत ऐश्वर्य के साथ हाथी के हौदे की सवारी पर बिठाकर ले जाते हैं!
भरत चक्रवर्ती का वैभव देखकर पुत्र मरीचि दंग रह जाते हैं और वे भी भी चक्रवर्ती बनना चाहते हैं! अपनी परदादी मरूदेवी को इसके पहले मरीचि ने कभी भी इतना प्रसन्न नहीं देखा! माता मरूदेवी अपने पुत्र भगवान ऋषभदेव के दर्शन करते है और उनका हृदय का अपार मातृप्रेम, अपार अनुकंपा एवं वात्सल्य अपने बेटे के लिए उमडता है! वे टकटकी लगाए अपने पुत्र को निहार रही थी तभी उन्हें केवल ज्ञान हो जाता है! इधर भरत चक्रवर्ती भी अपने पिता एवं तीर्थंकर भगवान के दर्शनार्थ सारे वैभव के साथ उनके चरणों में झुक कर वंदना कर रहे होते हैं! अब मरीचि को चक्रवर्ती बनने के बदले तीर्थंकर भगवान बनने की प्रबल इच्छा जागृत हो जाती है!
तीर्थंकर जैसे त्याग तप और ध्यान का उन्हें आभास नहीं था, लेकिन सपना जरूर तीर्थंकर बनने का था! उन्होंने अपने दादा से तीर्थंकरों के 20 बोल को सुना लेकिन उन्हें एक बोल “भक्ति” ही याद रहा और वे पूरी तरह से भक्ति में तल्लीन हो जाते हैं! एक दिन तीर्थंकर भगवान ने मरीचि को बुलाकर कहा कि साधु को हर संकट हर परिस्थिति का सामना करने में सक्षम होना चाहिए, अपने प्राणों से ज्यादा अपनी मर्यादा में रहना चाहिए! यह सुनकर मरीचि की हालत रेगिस्तान के प्यासे जैसी हो गयी! आहार पानी के लिए निकले तो उन्हें प्रचंड गर्मी का सामना करना पड़ा और आहार भी नहीं मिला तो वह सोचने लगे अगर मृत्यु हो गई तो तीर्थंकर कैसे बनेंगे..?
उन्होंने परमात्मा और साधु से हटकर एक बीच का रास्ता निकाला जिसमें नंगे पैर की जगह खड़ाऊ पहनना, शरीर पर चंदन लगाना, लोच नही करना और अपरिग्रह का रास्ता नहीं पकड़ना था! उन्हें परमात्मा से कोई आसक्ति नहीं थी! उन्होंने परमात्मा के समोवसरण के बाहर ही डेरा डाल दिया! लेकिन हमेशा लोगों को बताते के भगवान ऋषभदेव ही सच्चा धर्म पालते हैं! खुद को कमजोर बताते थे! एक दिन भरत चक्रवर्ती भगवान ऋषभदेव से पूछते हैं कि अभी इस भावी युग में कोई तीर्थंकर बनने लायक है क्या..? तब भगवान फरमाते हैं कि इस धर्म सभा में तो नहीं लेकिन, बाहर तुम्हारा पुत्र मरीचि खड़ा है वह जरूर भगवान महावीर तीर्थंकर बनेगा!
द्वार पर खड़े मरीचि यह सुनकर बहुत खुश होता है और उनमें अहंकार आ जाता है! उसी समय भरत चक्रवर्ती अफसोस करते हैं कि उन्होंने मरीचि को किसी काम का नहीं समझा और एक भावी तीर्थंकर का अपमान किया, और वे मरीची को वंदन नमस्कार करने पहुंच जाते हैं! अहंकारी को वंदन करना उसके अहंकार को वंदन करने के समान है! मरीचि भगवान ऋषभदेव के शरण में पहुंच जाते हैं और एक दिन बीमार पड़ जाते हैं तब उन्हें लगता है कि उन्होंने इतने साधु संतों की सेवा की है लेकिन उनकी खुद की सेवा करने के लिए एक साधु भी नहीं है! वे परेशान हो जाते हैं क्योंकि उनका दुख बांटने वाला कोई नहीं था!
इसके बाद मरीचि के पास कपिल संयम लेते हैं और उनके शिष्य बन जाते हैं! कपिल को अपनी अलग पहचान बनानी थी इस चक्कर में वह समाज में फूट डालते हैं अधर्म और अनैतिकता का प्रचार करते हैं, लेकिन मरीचि उन्हे रोकते या टोकते नही है! अपने अंतिम समय में मरीचि ने प्रायश्चित नहीं किया अपने कर्मों की आलोचना नहीं की और उन्हें सम्यक्तव की प्राप्ति नहीं हुयी! मृत्यु के बाद 11 जन्मो तक वे अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सके! सोलहवां भव भगवान महावीर के लिए एक नया मोड़ था जहां पर परमात्मा की यात्रा को एक नया टर्निंग प्वाइंट मिलता है!
*क्रमशः-*