बेंगलुरु। यहां अक्कीपेट जैन संघ में विराजमान आचार्यश्री देवेंद्रसागरसूरीश्वरजी ने शुक्रवार को अपने प्रवचन में कहा कि ज़िंदगी का रोना भी कोई रोना है, ज़िंदगी रोकर काटो या हँसकर वह तो कट ही जाती है।
सुख और दुख ज़िंदगी के खेल है। इन्हें खेल की तरह खेलते हुए चलने का नाम ही ज़िंदगी है। उन्होंने कहा कि अगर दुखों को नजरंदाज न किया जाये तो जीना मुश्किल हो जाता है।
दुख का प्रत्यश रूप जितना बड़ा दिखाई देता है अंदर से वह उतना हो खोखला और कमजोर होता है। उन्होंने कहा कि यदि विचारों को मजबूत बनाकर रखा जाये तो दुख हवा के झोखे के साथ गायब होने वाले पानी के बुलबुलों की तरह होते है।
दुख, तकलीफ, आपदाएं इंसान की ज़िंदगी के साथ जुड़ी हुई ऐसी अप्रसंगिक घटनाएं है जो क्षति पहुंचाकर हमे विचलित कर देती है। वे आगे बोले कि अविवेकी इंसान सहनशक्ति के अभाव मे अपने होश खो बैठता है।
मुसीबतों को टालने की कोशिश करते हुए भी हमारा मन विचलित हो ही उठता है। आगे बढ़ने के सारे दरवाजे बंद होते देखकर सिर पकड़ कर बैठने के सिवाए कोई ओर रास्ता नजर नहीं आता। आचार्यश्री ने कहा कि अगर सोच सकरात्मक होगी तो दुख मे भी कही न कही सुख की अनुभूति होगी।
उन्होंने कहा कि किस्मत भी उन्ही का साथ देती है जिनमे कुछ करने का साहस होता है। उन्होंने कहा कि दूसरों से तुलना करके अपने भाग्य को कोसने की बजाय अपनी अच्छी बुरी आदतों, कमजोरियों और ताकतों को परखें और हिम्मत न हारकर आगे बढ़ते रहे। यही खुशहाल ज़िंदगी का सबसे बड़ा मंत्र भी है।