श्री सुमतिवल्लभ नोर्थटाउन श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन संघ में प्रवचन देते हुए आचार्य श्री देवेंद्रसागरसूरिजी ने कहा कि मानव का शरीर एक खेत के समान है, इसमें वह जैसा बीज बोता है, वैसी ही फसल काटता है; अर्थात् मनुष्य को जिस प्रकार की फसल की इच्छा हो, उसे उसमें वैसा ही बीज बोना चाहिए। अगर हम मानसिक दृष्टि से संसार को देखें तो हमें पता चलेगा कि कुछ लोग अच्छे बीज बोते हैं, तो कुछ लोग सड़े-गले रद्दी बीज बो देते हैं और कुछ लोग तो ऐसे हैं जो दोनों ही तरह के मिले-जुले बीज बो देते हैं।
अच्छे बीज का आशय अच्छे कर्म अर्थात् पुण्य कर्म से है, सड़े-गले बीज का आशय पाप कर्म अर्थात् गन्दे कर्मों से है एवं कुछ अच्छे व कुछ बुरे अर्थात् कुछ तो पुण्य कर्म और कुछ पाप कर्म मिश्रित बीज हैं; अर्थात् मनुष्य अगर अच्छे कर्म करेगा तो वह अच्छा फल पायेगा और यदि वह बुरे कर्म करेगा तो बुरा फल पायेगा।उन्होंने आगे कहा कि जहाँ तक हो सके अच्छे ही कर्म करने चाहिएं, क्योंकि मनुष्य के सुख-दुःख का आधार उसके द्वारा किये गये कर्म पर ही होता है। हमारे सुखद और दुःखद फलों के भोग में दूसरे तो केवल निमित्त भर होते हैं, उन्हें श्रेय देना तो उदारता है, पर उन्हें दोष देना तो हमारी अज्ञानता है और अगर इसी बात को द्वितीय दृष्टि से देखा जाये तो ज्ञात होता है कि हम स्वयं ही अपने मित्र हैं और स्वयं के ही शत्रु हैं।
जब हम दूसरों पर अत्याचार करते हैं तो हम स्वयं के ही शत्रु हो जाते हैं, इसी प्रकार जब हम दूसरे के साथ सद्व्यवहार करते हैं तो हम स्वयं के मित्र होते हैं। इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर मनुष्य को ऐसे कर्म करने चाहिएं जो कि समाज भी उसकी सराहना करे, एक बार यह हो सकता है कि किसी बुरे काम का तात्कालिक रूप से अच्छा परिणाम दिखाई दे, किन्तु इस कलियुग में बुरा काम बुरा फल देकर ही रहता है। इसी प्रकार यह हो सकता है कि कोई अच्छा काम वर्तमान में हमें किसी कठिनाई में डाल दे, किन्तु इस कलियुग में वह अच्छा परिणाम देकर ही रहेगा।इसीलिए आशा का अतिरिक्त बोझ रखने से कोई लाभ नहीं है।