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बुद्धि दो प्रकार की होती है सद् बुद्धि व कुबुद्धि: आचार्य तीर्थ भद्रसूरिश्वर

बुद्धि दो प्रकार की होती है सद् बुद्धि व कुबुद्धि: आचार्य तीर्थ भद्रसूरिश्वर

किलपाॅक में विराजित आचार्य तीर्थ भद्रसूरिश्वर ने कहा मोह का क्षय का मानव भव में ही संभव है। हमें यह मौका मिला है लेकिन हम मोह की वृद्धि कर रहे हैं। शरीर का राग, रिश्ते नाते, धन सम्पत्ति, सुख सुविधा का राग बढ़ता जा रहा है। जहां हमें मोह का क्षय करना है वहां मोह, ममत्व से आसक्ति लगाकर बैठे हैं। उन्होंने कहा उस बुद्धि को हटा दो जो परमात्मा व आपके बीच अड़ंगा डाल रही है।

उन्होंने कहा बुद्धि दो प्रकार की होती है सद् बुद्धि व कुबुद्धि। सद् बुद्धि हमेशा हमें प्रोत्साहित करेगी, वह परमात्मा के मिलन के बीच नहीं आएगी, उसकी सलाह अच्छी होगी। वहीं कुबुद्धि कहेगी परलोक, मोक्ष किसने देखा है, तेरी आत्मा ही परमात्मा है। तू तेरी आत्मा को देख, परमात्मा के मंदिर जाने की जरूरत नहीं है।
बुद्धि को हमें पहचानना है और यह देखना है कि सद् बुद्धि को  कैसे पुष्ट करें। सद् बुद्धि जो सलाह दे उसी अनुसार चलो, वह आपके साथ में है। वह आपको अन्तिम मंजिल तक पहुंचा देगी, लेकिन उसके बाद आपका साथ छोड़ देगी। उन्होंने कहा जो सलाह आत्म कल्याण में हितकारी है, वह सद् बुद्धि है।

उन्होंने कहा हमें हमारे भविष्य के बारे में कुछ पता नहीं है। भविष्य को प्रसन्न करने के लिए सब जीवों की पत्नी के रुप में भवितव्यता को रखा गया है। ज्ञानियों के अनुसार जीवन में जितना कष्ट, दुख सहन करोगे उतना ही भवितव्यता का परिपाक होगा और मोक्ष के मार्ग की ओर अग्रसर होंगे। इससे कर्म निर्जरा के साथ पुण्य का सृजन होगा, लेकिन हमारी परिस्थिति भिन्न  है, हम कष्ट, दुख सहन नहीं कर सकते।
उपमिति ग्रंथ में बताया गया है कि आपको इस जन्म में कितने कर्मों को भोगना है, यह कर्म घटिका के अनुसार मृत्यु होने पर इसका हिसाब फिट किया हुआ है। एक जन्म में अनुभव करने योग्य यानी एक भववेद्य नामक घटिका में पूरा प्रोग्राम लिखा रहता है, उसके अनुसार आपका सारा जीवन व्यतीत होगा। 
आत्मा कैसे नीगोद से बाहर निकलती है और कर्म और काल उसे साधारण वनस्पतिकाय से प्रत्येक वनस्पतिकाय में ले जाते हैं, हालांकि वहां थोड़ा रिलेक्स मिलेगा। पृथ्वीकाय के अनेक भेद है जैसे खनिज, मेटल आदि लेकिन उसमें सुख नहीं है। जब आप जमीन खोदते हैं पृथ्वीकाय जीवों को बहुत पीड़ा होती है। फिर अपकाय यानी पानी स्वरूप में जन्म मिला, वहां भी बहुत दुख, कष्ट सहन किए। फिर तेउकाय यानी अग्नि का जीव बना, वहाँ भी असंख्य काल जन्म मरण हुआ।
पृथ्वीकाय का आयुष्य 22000 वर्ष है वहीं अपकाय का 7000 वर्ष। फिर वायुकाय में असंख्य दुख भोगने पड़े। जब आप हवा के लिए खिड़की के पास बैठते हैं या पंखा चालू करते हैं यह हमारे सुख के लिए है लेकिन वायुकाय जीवों को दुख,कष्ट सहन करना ही पड़ेगा। महापुरुषों ने कहा है कि एक बार जीव की दुर्गति होने पर वापस सद् गति में आने के लिए असंख्य साल लग जाएंगे। उसके लिए पुण्य करना पड़ेगा।
जीव जहां भी गया, पीड़ा, दुख, जलन देख  भवितव्यता ने जीव को एकाक्षनगर यानी एकिन्द्रिय से निकाल कर विकलाक्षनगर यानी बेयिन्द्रिय, तेईन्द्रिय ले जाते हैं। तेईन्द्रिय यानी कीड़े, मकौड़े, काॅकरोच आदि जीव होते हैं। वहां भी असंख्य काल व्यतीत करना पड़ता है। चौरेन्द्रिय जीव यानी मख्खी, मकड़ा आदि, वहां भी असंख्य काल व्यतीत करना पड़ता है। फिर पंचाक्षनगर यानी पंचेंद्रिय जीव के पशु योनि, तीर्यंच में लेकर आते हैं।
पहले जलचर यानी मछली, कछुआ, मगरमच्छ, मेंढक में सांसारिक जीव को रखा जाता है। वहां भी दुख, कष्ट ही भोगा। फिर थलचर में लाया गया जहां हाथी, घोड़े, कुत्ते, बिल्ली आदि होते हैं। जीव को सब योनियों का भ्रमण कराया। उन्होंने कहा जिस योनि में देखो, असंख्य काल मिलता है लेकिन मनुष्य जन्म में 50-100 साल की आयुष्य मिलती है। सिद्धर्षि गणि कहते हैं यह हम सबका भूतकाल है। यहां सही ढंग से जी लो, आपके असंख्य भव सुधर जाएंगे, नहीं तो अनंत काल के दुख, कष्ट तैयार है।
आनंदघन महाराज ने लिखा है, हमारे अन्दर रह रही चेतना बोल रही है कि अनंतकाल नीगोद, अपकाय, वायुकाय में निकाला, लेकिन वहां परमात्मा के दर्शन नहीं मिले। आज मेरा पुण्योदय जागृत हुआ और अब परमात्मा के दर्शन की सम्भावना है। चेतना अपनी सखी बुद्धि से कह रही है, हे सखी! मुझे मेरे प्रभु मिले हैं, यह मानव जन्म मिला है, तू बीच में क्यों आ रही है। बुद्धि ने जबाब दिया ‘तूं तो शरीर है’। हमने शरीर को चेतना मान लिया। वरिष्ठ एवं कर्मठ श्रावक पुखराज जैन के निधन पर आचार्य ने उनकी आत्मा को शाश्वत सुख प्राप्ति की कामना की। 

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