Share This Post

ज्ञान वाणी

बिना सोचे-विचारे और वासना के वश में वचन न दें

बिना सोचे-विचारे और वासना के वश में वचन न दें

ज्ञान के साथ श्रद्धा का स्पर्श परमावश्यक

चेन्नई. पुरुषावाक्कम स्थित एमकेएम में विराजित उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि ने कहा परमात्मा ने तीन मनोरथ बताए, पहला, मेरा किसी पर कोई अधिकार नहीं होगा। किसी पर भी किसी का अधिकार नहीं होता। राजा दशरथ अपने राज्य पर अपना अधिकार समझते थे फिर भी जिसका अधिकार नहीं था उस मंथरा दासी चाल उस राज्य पर चल गई और राजा दशरथ देखते ही रह गए। कभी भी आदेश की भाषा में न बोलें। अपनी भाषा में सामने वाले का सम्मान करें। अपने मन में परिग्रह त्याग की भावना रखें। अच्छे मनोरथ रखने से स्वयं के भविष्य की कहानी लिखते हैं। अच्छे सपने जरूर देखें क्योंकि उनका मूल्य नहीं लगता।

आचारांग सूत्र में परमात्मा के बताए अनुसार तीन काल की नौ क्रियाएं होती हैं। हम वर्तमान में रहते हुए भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों की क्रिया कर रहे होते हैं। क्रिया को हम स्वयं करते हैं, दूसरों से कराते हैं और करने वाले की अनुमोदना करते हैं। नहीं जाननेवाला व्यक्ति ज्यादा भटकता है और अनेक योनियों का बंध होता ही जाता है। यदि तपस्या की भावना मन में आ गई तब से धर्म क्रिया आपके अन्तर में शुरू हो जाती है। यह कार्य पाप व पुण्य दोनों में होता है।

मनोरथ से आप तीर्थंकर भी बन सकते हैं और रावण भी बन सकते हैं। तीर्थंकरों की भावना होती है कि संसार के सभी जीवों को परमात्मा के ज्ञान से प्रकाशित कर धर्मप्रेमी बनाना। इसलिए संकल्प के आधार पर नरक, स्वर्ग या तीर्थंकर किसी का भी बंध हो सकता है। केवल मन की भावनाओं के द्वारा हम सबसे ज्यादा अनकिए पापों का फल भुगतते रहते हैं, जो हमने किए ही नहीं। प्रायश्चित करने से जीव की गति, मति और भविष्य सब सुधरते हैं। इसलिए पापकर्मों के बंध भावनाओं में न करें।

आचारांग सूत्र में परमात्मा ने कहा है जो समस्त दिशाओं, अनुदिशाओं में संचरण करता है, वह मैं ही हंू। जिसे नौ क्रियाओं का संसार पता नहीं होता है वह अज्ञान में रहते हुए समस्त दिशाओं में घूमता रहता है और वहां की अनुभूति उसके साथ आती है। तब अनेक योनियों का अनुसंधान होता है। योनियों के बंध के ८४ लाख कारण हैं। मन का भाव केवल एक पल का होता है, लेकिन वह जन्म-जन्मांतर का बंध करा देती है। जो तीन काल की नौ क्रियाओं को जानने वाला अनेक प्रकार की योनियों का संधान करता है, उसके ये भाव तीर के समान उन योनि के भावों को भेद देते हैं। ज्ञान के साथ श्रद्धा का स्पर्श जरूरी है नहीं तो जीव उन्मादी, अहंकारी और गोशालक के समान बनता है।

मुनि तीर्थेशऋषि ने गीतिका पेश की। उन्होंने बताया कि पंचेंद्रियों के वश में होकर जीव सुगंध वाले सौंदर्य प्रसाधनों के प्रति आसक्त रहता है। लेकिन जो आपके मन को भा रही है वह सुगंध बनाने में कितने ही जीवों का घात होता है। गंध के वशीभूत होकर सर्प, भी सपेरे के वश में हो जाता है और अनेक कष्ट भुगतता है। जो जीव इसके वश में रहता है उसका बिना मौत के घात होता है और जो पांचों इन्द्रियों के वश में रहता है उसकी तो बड़ी दुर्गति होती है, यह पापों का बंध है। चातुर्मास के अवसर पर अपनी घ्रणेन्द्रियों में संयम रखें। इनसे परे होकर जीवन यात्रा करें।

 

Share This Post

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

You may use these HTML tags and attributes: <a href="" title=""> <abbr title=""> <acronym title=""> <b> <blockquote cite=""> <cite> <code> <del datetime=""> <em> <i> <q cite=""> <s> <strike> <strong>

Skip to toolbar