सौभाग्य प्रकाश संयम सवर्णोत्सव चातुर्मास खाचरोद
पुज्य प्रवर्तक श्री प्रकाश मुनि जी मा.सा. यो मुक्ति – पंथ – गमने करुणादार्थ सार्थम दो मार्ग संसार में एक मुक्ति का एक भटकने का, प्रमादी जीव संसार में भटकते रहते है मोह से ग्रस्त है, मोह छूटता नहीं है कर्म बंधते रहते है।
साधु के दो गुण स्थान बताये 6 व7 गुणस्थान बताये है प्रमत्त साधु- आयुष्य 1 करोड़ पूर्व, अप्रमत्त साधु-आयुष्य अर्न्तमुर्हत का आगे बढ़ गया तो एक अंतर मुर्हत में मोक्ष हो जाता है। साधु स्वाध्याय में अप्रमत्त रहता है। प्रमार का काल लम्बा है, ज्यादा समय प्रमाद में जाता है।
समयं गोयमं न पमाये – गौतम स्वामी अप्रमत्त थे एक अवगुण था भगवान मेरे हे, उनके चेले को केवल ज्ञान हो जाता। मोह रूपी प्रमाद…. भगवान मेरे हे छुटा और केवल ज्ञान हो गया। चिंतन में बदलाव आया केवल ज्ञान हो गया।
महोमोद प्रमाये – मोह के स्थान पर रुके में क्या कर रहा हु ? चिंतन करे प्रमाद रुक जायगा। सारा रास्ता बदल जायेगा वैरागी 7वें गुणस्थान मैं रहता है साधु 6 गुणस्थान में रहता है जब उसको लगन भाव रहता है कि दिक्षा लेना है.. वैरागी अप्रमत्त भाव में रहता है।
विचार इधर उधर ले जाते है क्योंकि खोपड़ी में ज्ञान भरा है। ज्ञान सुलझाता है अज्ञान उलझाता हे, दुसरे को उलझा रहे है तो आप अज्ञानी है। हमारे जीवन की वृत्ति क्या है? उलझने की, सुलझने की…*धर्म एकांत अपने लिये होता है* जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र तप की आराधना करता हे वह खुद के लिये करता है वह ज्ञानी। आदमी कीतना चालाक है, मनुष्य की बुद्धि के सामने देवता भी हैरान है। कौन सा सोदा – तुम चालाक हो के नही, या चीज मिल जायगा तो यह भेट करूँगा, हमने धर्म को प्रमाद में लेकर दीमाग में रखा हे, धर्म तो बुलडोजर है कर्म को तोड़ देता है। अप्रमत्त अवस्था अंदर से जागृत रहे , वह नींद में जगा देती है।
द्रष्टान्त आचार्य हीर विजय जी ने अकबर को प्रतिबोध किया था । एक बधिक को पठान ने तैयार किया – हिरविजय जी को मारने के लिये भेजा वह आया तलवार हाथ में, उनकी नींद खुली होगी मच्छर को भगाया पूजा ओर करवट बदली ओगे से पुंजा उसने रेखा (बधिक) विचार में पड़ा जो नींद में जगा है, मच्छर न मर जाये उसके लिये में इनको मारने आया। तलवार गिरी आवाज आई उन्होंने पुछा कौन ? इस समय पूछा- हाँ कैसे माना हुआ! बधिक ने कहा आया तो था तुम्हे मारने पर में आपको ओर आपके व्यवहार को देखकर आज से कीसी को नहीं मारुंगा। वह अप्रमादी गुरु को देखकर समर्पित हो जाता है।
धर्म मे मन लगे तो आप्रमत्त, मन न लगे तो प्रमत्तः।
महाराज कहे जो बोले वह सुन ले तो कल्याण।
– धर्म स्थान कर्म बांधने का स्थान की, कर्म तोड़ने का कहाँ विवेक, विवेक है तो सभ्य समाज, है, संस्कृति है तो विवेक नहीं। कोई आपके बुद्धिमान होने का प्रमाण नहीं। विवेक में धर्म होता है। सम्यक प्रकार से देखो।
जहाँ स्वार्य छुट जाय वहाँ अप्रमाद । अन्दर की लालसा खाने की..कहाँ मानसिक स्थिति, धर्म, तपस्या को तमाशा बना दिया।
मन मे प्रमाद , मन मोह में घिरा , तपस्या करो कम से कम द्रव्य का उपयोग करना, द्रव्य खाने में मर्यादा होनी चाहिये आचार्य श्री उमेश मुनि जी महारासा कहते थे कि तपस्या में उनोदरी करो
जो तुम कर रहे हो, समझ के करो आपका पुरुषार्थ सही दिशा में चले तो आगे बढ़ जाये, यही हमारी सोच है । भूले वह प्रमाद ,जागे वह अप्रमाद , कही तो रुको।