Sagevaani.com @चेन्नई; श्री मुनिसुव्रत जिनकुशल जैन ट्रस्ट के तत्वावधान में श्री सुधर्मा वाटिका, गौतम किरण परिसर, वेपेरी में शासनोत्कर्ष वर्षावास के शनिवारीय प्रश्नोत्तर में धर्मपरिषद् को सम्बोधित करते हुए गच्छाधिपति आचार्य भगवंत जिनमणिप्रभसूरीश्वर म. ने कहा कि प्रतिक्रमण अनादि काल से है। जब से नवकार है, तीर्थंकर परमात्मा है, सिद्ध लोक है, मनुष्य अवस्था है, तब से प्रतिक्रमण है। प्रतिक्रमण द्रव्य और भाव दोनों से महत्वपूर्ण है। प्रतिक्रमण ही हमारे आत्म तत्व को शुद्ध बनाने वाला है, मोक्ष प्रदान करने वाला है। प्रतिक्रमण यानि पिछे आना। जो पाप कर्म किये, नहीं करने योग्य कार्य किये, उसके प्रायश्चित के रूप में प्रतिक्रमण किया जाता है। मजबूरी या जानबूझकर किसी भी पाप के लिए प्रायश्चित करना जरूरी है। ह्रदय को कोमल, सरल बनाकर प्रतिक्रमण किया जाता है। यहीं हमें सिद्धत्व को पहुचाते है।
गुरुवर ने कहा कि परमात्मा कभी किसी पार नहीं दिला सकते हैं। परमात्मा ही हमें सामायिक, स्वाध्याय, प्रतिक्रमण का मार्ग बताया, वे हमारे मार्ग दर्शक है, राहगीर तो हमें ही बनना पड़ेगा। उनका स्मरण हमारे लिए निमित्त बनता है, हमारी भाव धारा को पवित्र बना सकता है और हम भी परमात्मा के बतायें मार्ग पर चलने को गतिशील बनते है। द्रव्य से की गई क्रिया हमें पुण्य देती है पर भाव से की गई क्रिया हमें निर्जरा देती है, उत्तम फल देती है। स्वाभाविक रूप से साधना तो हमें ही करनी पड़ेगी, चलना हमें ही पड़ेगा और हम चलेगे तभी पहुचेंगे। दिल्ली की महिमा करने से नहीं, उसके लिए चलना पड़ेगा, पुरुषार्थ करना पड़ेगा।
मुक्ति प्राप्त करने से लिए परमात्मा के बताये रास्तें पर चलना पड़ेगा। क्या, क्यों नहीं, कैसे किया वह अपनाने है। जैसे परमात्मा महावीर ने साधना काल में जो परिषह सहन किये और समता में रहे। उसी तरह हम भी दुख या सुख में सम रहे। कार्योत्सर्ग- काय गुप्ति का अभ्यास। कायोत्सर्ग की भूमिका में अपनी आत्मा में अवस्थित होना है।