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प्रतिक्रमण आना श्रावक होने की पहली पहचान हैं: जैन सिद्धान्ताचार्य दिवाकरिय साध्वी श्रीप्रतिभाश्रीजी

प्रतिक्रमण आना श्रावक होने की पहली पहचान हैं: जैन सिद्धान्ताचार्य दिवाकरिय साध्वी श्रीप्रतिभाश्रीजी

विजयनगर स्थानक भवन में विराजित जैन सिद्धान्ताचार्य दिवाकरिय साध्वी श्रीप्रतिभाश्रीजी ने वन्दना के विवेचन को पूर्ण करते हुए राजा श्रेणिक का उदाहरण दिया कि राजा श्रेणिक ने 14000 साधुओं को वन्दना करते करते आलस में चले गए तो उनको वन्दना का प्रतिफल नहीं मिला। विषय को आगे बढ़ाते हुए प्रतिक्रमण की विस्तृत में व्याख्या करते हुए कहा कि, प्रतिक्रमण आना श्रावक होने की पहली पहचान हैं। जिसे प्रतिक्रमण नही आता है वह श्रावक नहीं कहला सकता।जीवात्मा के अपनी विभावदशा में चले जाने से पुनः उसे अपने स्वभाव में लाना ही प्रतिक्रमण है।पाँच प्रकार के प्रतिक्रमण बताये पहला मिथ्यात्व का,दुसरा अव्रत का,तीसरा प्रमाद का,चौथा कषाय का व पांचवा अशुभयोग का प्रति क्रमण।

साध्वी दीक्षिताश्रीजी नेआगमों के विवेचन के तहत 10वें अध्ययन की व्याख्या सुनाई। साध्वी प्रेक्षाश्रीजी ने अट्ठारह पापस्थानों के वर्णन को आगे बढ़ाते हुए आज राग के बारे में समझाया।राग के वशीभूत होकर कई ऋषिमहात्माओं,व महापुरुषों ने अपने जीवन का नाश कर दिया। राग अर्थात अपनत्व,मोह,प्रीत सभी राग के पर्यायवाची है।महाराजा दशरथ की रानी कैकेयी का अपने पुत्र के प्रति राग तथा भगवान राम का सोने के हिरण के मोह में राज्य की कैसी दुर्दशा हो गयी।उसी प्रकार गौतमबुद्ध का महावीर के प्रति जब तक राग था,तब तक केवल ज्ञान प्राप्त नहीं कर सके।आदि उदाहरण देते हुए कि राग मनुष्य को बन्धन में बांध देता है।

आज तिंडीवरम, भीलवाड़ा, इंदौर, बदरहली तथा बैंगलोर उपनगरों से दर्शनार्थ पधारे हुए महानुभावो का हार्दिक स्वागत संघ के मंत्री कन्हैया लाल सुराणा ने किया।

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