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प्रज्ञाशील व्यक्ति सुधारे बिना नहीं रह सकते: प्रवीण ऋषि

आचार्य प्रवीण ऋषि जी

Sagevaani.com /रायपुर। जंबूस्वामी की जिज्ञासा से एक अनूठे स्तोत्र का जन्म हुआ। सुधर्मा स्वामी ने उनकी जिज्ञासा को शांत करते हुए पुच्छिंसुणं की 108 पंक्तियों में प्रभु महावीर के साथ बिताये 30 वर्षों के अनुभव को सजाया है। पुच्छिंसुणं एक अनूठा स्तोत्र है जिसे प्रभु के जीवन को जीने वाले सुधर्मा स्वामी अपने शब्दों में सजाया है और बुधवार से इसकी आराधना लालगंगा पटवा भवन में शुरू हुई है। उपाध्याय प्रवर प्रवीण ऋषि के मुखारविंद से श्रावक इस आराधना का लाभ ले रहे हैं। उक्ताशय की जानकारी रायपुर श्रमण संघ के अध्यक्ष ललित पटवा ने दी।

गुरुवार को उपाध्याय प्रवर प्रवीण ऋषि ने धर्मसभा को संबोधित करते हुए कहा कि सुधर्मा स्वामी ने सबसे पहले प्रभु की उस विशेषता का जिक्र किया कि जो हमारी नजर से ओझल होती है।

हम शुरुआत करते हैं कि प्रभु करुणा के सागर है, परमा पराक्रमी है, लेकिन सुधर्मा स्वामी ने क्षेत्रेज्ञ से शुरुआत की। दो क्षेत्र हैं, एक स्वयं का और दूसरे का। जहाँ मैं रहता हूं वह स्वयं का क्षेत्र है और दोनो क्षेत्रों में 3 लोक हैं। इन लोकों, क्षेत्रों में हमें क्या देखना है? इस क्षेत्र में दो प्रकार के प्राणी रहते हैं, एक त्रस व दूसरे स्थावर। कुछ वेदनाएं होती हैं, जिन्हे हम व्यक्त नहीं कर सकते हैं। कुछ को हम व्यक्त कर सकते हैं। कुछ व्यक्ति होते हैं को अपनी अनुभूति को अभिव्यक्त कर पाते हैं, और कुछ नहीं कर पाते। जो अनुभूति को व्यक्त कर पाते हैं वो त्रस हैं, जो नहीं कर पाते वो स्थावर हैं।

संवेदना दोनों के पास है, सुख-दुःख को अनुभूति दोनों को है। कुछ लोग अपनी संवेदनाओं के आधार पर खुद को बदल लेते है, वे त्रस कहलाते हैं। जो खुद को नहीं बदल पाते हैं उन्हें स्थावर कहते हैं। जो अपने अनुभव से सीखता नहीं है वह स्थावर है। इनकी सोचा रहती है कि जैसा चल रहा है, वैसा ही चलेगा। जो त्रस हैं उनके मोक्ष में जाने की संभावना होती है। कभी कभी स्थावर त्रस में जा सकता है और त्रस स्थावर में। जो त्रस होकर स्थावर में जाते हैं वो किसी की लेश्या से प्रेरित होकर बदलाव को स्वीकार करते हैं। प्रभु महावीर ने इनकी समीक्षा की है कि ये त्रस क्यों बना, स्थावर क्यों बना?

जो हुआ है उसके अलावा जितनी संभावनाएं है उसे देखने को प्रज्ञा कहते हैं। जो हुआ है उसे जनना ज्ञान है, लेकिन जो यह देखता है कि इसके अलावा भी कुछ हो सकता है, और भी कई संभावनाएं थी, इसकी समीक्षा करता है तो प्रगति होती है। प्रज्ञा व्यक्तिगत होती है और यही आदमी की पहचान है। बिना समीक्षा के प्रगति असंभव है। केशी श्रमण ने जब इंद्रभूति गौतम से पूछा था कि 4 महाव्रत की जगह 5 महाव्रत क्यों?

तो उन्होंने जवाब दिया था कि प्रभु महावीर ने समीक्षा की प्रज्ञा से बदलाव किए थे। जिस समय आप समीक्षा करते हैं तब सीखते हैं, अगर समीक्षा नहीं करते हैं तो भोगते हैं। हम प्रायः कहते हैं कि परमात्मा का धर्म करुणा, समता, विवेक से जन्मा है। लेकिन सुधर्मा स्वामी कहते हैं कि उन्होंने को तीन लोकों के जीवों को देखा, कि त्रस वाले स्थावर हो जाते हैं, स्थावर वाले त्रस हो जाते हैं, कभी इसका उल्टा हो जाता है, इसे उन्होंने देखा। ये स्वयं के ही कर्म से होते हैं। और अगर ये अपने कर्म को बदल लें तो अपना भविष्य भी बदल सकते हैं। इसलिए महावीर नए ऐसा दिव्या धर्म प्रस्तुत किया। इसके बाद करुणा, अनुकंपा आ सकती है।

उपाध्याय प्रवर ने कहा कि महावीर ने क्षमा को सबसे बड़ा बताया है। क्षमा वही कर सकता है जो त्रस है, स्थावर क्षमा नहीं कर सकता है। और जो क्षमा नहीं कर सकता वो स्थावर हो जाता है। अगर किसी से गलती हो जाए तो हमारे पास दो विकल्प रहते हैं, एक उसकी गलती को सुधारना और दूसरा दंड।

क्या दंड देने वाला सामने वाले की वेदना को महसूस कर सकता है? किसी के दर्द को महसूस करने वाला दण्डित कर सकता है क्या? अगर वह वेदना को महसूस नहीं कर सकता है तो वह स्थावर है। और अगर वेदना महसूस कर ली तो वह आगे बढ़ गया। परमात्मा का धर्म प्रज्ञा से जन्मा है। प्रज्ञाशील नहीं तो धर्म नहीं। और प्रज्ञाशील व्यक्ति सुधारे बिना नहीं रह सकते। महावीर सर्वदर्शी हैं, वे सभी दिशाओं, आयामों को देखा सकते हैं। और को सभी आयामों को देख सकते हैं, उनका ज्ञान कभी नष्ट नहीं हो सकता है। गुस्से में छिपा प्रेम और आक्रोश के पीछे छिपी वेदना को देख सकते थे प्रभु महावीर।

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