तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशम अधिशास्ता-शांतिदूत-अहिंसा यात्रा के प्रणेता-महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमणजी ने अपने मंगल प्रवचन में संबोधी व्याख्यानमाला को विराम देते हुए परदेसी राजा के व्याख्यान का शुभारंभ किया। गौरतलब है कि जैन समाज के साधु साध्वियों के चातुर्मास सम्पन्न कर विहार करने से पूर्व परदेसी राजा का व्याख्यान होता है।
जो कुमारश्रमण केसी और परदेसी राजा से संबंधित होता है। आचार्य प्रवर में मंगल प्रवचन में फरमाते हुए बताया कि भगवान महावीर के समय पांच महाव्रत थे परंतु उससे पूर्व 23वें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ की परंपरा तक चार महाव्रत सर्वप्राणातिपात, सर्वमृषावाद, सर्वअत्तादान, सर्वपरिग्रह यह चार महाव्रत ही माने जाते थे।
आचार्य प्रवर में उपहार के विषय में बताते हुए कहा कि उपहार में दी गई वस्तु का मूल्य महत्व नहीं रखता है। यह एक सम्मान की बात होती है। यह सम्मान अगर बंद कमरे में हो तो उसका महत्व कम होता है और अगर वह सभा के बीच हो तो उसे सम्मान और उपहार का महत्व अलग हो जाता है।
चतुर्मास प्रवास व्यवस्था समिति द्वारा कृतज्ञता ज्ञापन करने के क्रम में श्री किरण भंसाली, श्री राजेश कोठारी, अशोक सुराना, श्रीमती विजेता रायसोनी, श्री बद्रीलाल पितलिया, श्री माणकचंद मुथा, श्री रमेश दक ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी।
सिवांची मालाणी महिला समाज द्वारा गुरुदेव के समक्ष में गीतिका की प्रस्तुति की गयी। मुंबई से समागत श्री रवि जैन मालू द्वारा गीत का संगान किया गया एवं वंदना अर्ज की गई। संचालन मुनि श्री दिनेशकुमारजी ने किया।