साहुकारपेट स्थित राजेन्द्र भवन में विराजित मुनि संयमरत्न विजय ने कहाबइष्ट की पूजा करने से उपसर्ग-कष्ट नष्ट हो जाते हैं, विघ्नों की बेल छिन्न-भिन्न हो जाती है और प्रसन्नता की प्राप्ति होती है।
प्रसन्न चित्त से की गई पूजा ही अखंड होती है। सूर्य जैसे प्रकाश पुंज को नहीं छोड़ता, वैसे ही स्नेह उसे नहीं छोड़ता, जो वीतराग परमात्मा की पूजा करता है। चांदनी जैसे चंद्रमा के संग रहती है, वैसे ही कल्याण रूपी लक्ष्मी उसके साथ रहती है, राजा के पीछे जैसे सेना वैसे ही सौभाग्य उसके समीप आता है और युवा पुरुष को जैसे स्त्री, वैसे ही स्वर्ग और मोक्ष रूपी लक्ष्मी उसे चाहती है।
जिनेश्वर देव की पूजा करने वालों की पुण्यवान लोग स्तुति करते हैं। राजाओं के समूह उसके समक्ष हाथ जोड़ खड़े रहते है। अपार प्रसिद्धि वह प्राप्त करता है। साथ ही चित्त की पीड़ा को हरने वाली उसकी कीर्ति सर्वत्र फैलने लगती है, कुल की शोभा बढ़ाने वाली सुख-सुविधाएं खुद उसके निकट चली आती हैं।
जिनेन्द्र प्रभु की पूजा सप्त व्यसन रूपी पर्वत को भेदने के लिए वज्र की धार के समान है। उत्सव रूपी वन को विकसित करने के लिए वसंत ऋतु के समान है। देवलोक और मोक्ष की संपदा को बुलाने के लिए संकेत के समान है, भव रूपी समुद्र को पार करने के लिए नाव के समान है, पुण्य रूपी कमल उत्पन्न करने में तालाब तथा महिमा से भरे हुए सुंदर स्थान के समान है।