किलपाॅक जैन संघ में विराजित योगनिष्ठ आचार्य केशरसूरी समुदाय के वर्तमान गच्छाधिपति आचार्यश्री उदयप्रभ सूरीश्वरजी ने ठाणांग सूत्र की विवेचना करते हुए कहा इस सूत्र को पढ़ने का अधिकार केवल श्रमणों को दीक्षा पर्याय आठ वर्ष बाद ही दिया जाता है। इस सूत्र में बताया गया है कि आत्मा एक है। इस सूत्र में स्यादवाद को बहुत महत्वपूर्ण माना गया क्योंकि यह मोक्ष मार्ग में हमारा मार्गदर्शक है। स्यादवाद यानी एक वस्तु के अनेक दृष्टिकोण। स्यादवाद जब तक नहीं समझ पाएंगे तो वस्तु को समझ ही नहीं पाएंगे। ज्ञान जितना है, उसका उतना सम्यग उपयोग करना शुरू कर दो। मात्र संग्रह वाला ज्ञान मोक्ष नहीं देता। आत्मा का लक्षण है उपयोग। सब आत्मा का लक्षण समान है, जैसे सूर्य एक ही है लेकिन वह अपना रंग और प्रभाव बदलता रहता है, वह उसके पर्याय से दिखता है। आत्मा आत्म स्वरूप से एक है लेकिन पर्याय अनेक है।
आत्मा एक है इसका दूसरा कारण है यह है कि जन्म, जरा, मरण में कोई दूसरा सहायक नहीं होता, इसलिए अपेक्षा से आत्मा एक है। व्यक्ति में अलग-अलग आत्मा बताई गई है लेकिन स्वरूप के आधार पर आत्मा एक ही है। उन्होंने कहा सच्ची प्रभु भक्ति वही है जिसमें सूत्रों के शब्दों का अर्थ व आलंबन करके भाव व्यक्त करते हैं। क्रिया अल्प समय की होती है और प्रक्रिया लंबे समय तक चलती है। प्रक्रिया ही केवलज्ञान का हेतु है। प्रक्रिया पुण्य का निर्माण करती है। उन्होंने कहा पूजक से पूज्य बनने के लिए पूज्य का पूजन किया जाता है। सिद्धों को उपयोग मात्र गुण होता है। वे अनंत जीवराशि की आत्मा को देखते हैं। उन्होंने कहा ज्ञान सहन कराता है, मोह नहीं। ज्ञानपूर्वक सहन करोगे तो निर्जरा शीघ्र होगी। आत्मा एक है, वैसे दंड भी एक है। दंड यानी अपराध, सजा, पीड़ा।
दंड पांच प्रकार के होते हैं अर्थ दंड यानी प्रयोजन से किया हुआ पाप, अनर्थ दंड, हिंसा दंड, आकस्मिक दंड और दृष्टि विपर्यास दंड। इन पांच दंडों से आत्मा संसार में सजा भुगत रहा है। हिंसा दंड यानी अपनी आवश्यकता को हिंसा के माध्यम से पूरी करना, जैसे भूख मिटाने के लिए नॉनवेज खाना। बिना कारण के दृश्यों को देखना भी पाप है। उन्होंने कहा अर्थ दंड से बचने के लिए त्याग जरूरी है। अनर्थ दंड से बचने के लिए विवेक रखना जरूरी है। हिंसा दंड से बचने के लिए जयणा रखना जरूरी है। आकस्मिक दंड से बचने के लिए उपयोग रखना जरूरी है। दृष्टि विपर्यास दंड रखने के लिए सम्यक्त्व के गुण का विकास जरूरी है। पाप से जितना बच सको, बचो, उसे सापेक्ष भाव कहते हैं।