चेन्नई. किलपॉक में विराजित आचार्य तीर्थभद्र सूरीश्वर ने कहा संसार के सुख सात प्रकार के हंै शरीर, स्थान, सुविधा, स्वजन, सम्पत्ति, सत्ता और सम्मान का सुख। निरोगी शरीर व खाने पीने की अनुकुलता शरीर का सुख है। संसार के जीव इन्हीं सुखों को सर्वस्व मानकर जीवन जीता है।
आत्मा का विचार करने की तरफ ध्यान ही नहीं देता। जब तक इसका आभास होगा, यह मानव जीवन गंवा चुके होंगे। सच्चे ज्ञानी का हमेशा विश्वास रहा है कि मृत्यु से पहले मेरा ज्ञान दूसरों को दे दूं। यह शासन की सम्पत्ति है और इसे योग्य पात्र को दे देना चाहिए। ज्ञान का स्वरूप हमेशा रहना चाहिए, चाहे मैं रहूं या नहीं। अयोग्य पात्र को ज्ञान देने से लाभ नहीं, नुकसान है।
उन्होंने कहा हम चैतन्य स्वरूप है, पुद्गल द्रव्य पर हमारा कोई अधिकार नहीं है, फिर भी अधिकार जमा लिया है। शरीर भी हमारा नहीं है फिर भी हमारा बना लेना, मान लेना, यह चोरी है। यह सबसे बड़ा अपराध है। सिद्धर्षि गणि ने संसार को चोर की उपमा दी है।
उन्होंने कहा हम सच्ची बात पर घमंड करते हैं लेकिन झूठी बात पर घमंड करें तो क्या होगा। उत्तम कुल के अहंकार के कारण मरीचि को एक कोटाकोटी सरोपागम का अतिरिक्त आयुष्य भुगतना पड़ा। उत्तम कुल की प्राप्ति पुण्य से होती है। पुण्य के उदय से जो चीज मिलती है वह अपनी नहीं है।
नमस्कार महामंत्र में नमस्कार हम कर रहे हैं लेकिन जिसको नमस्कार किया जाए, वही नमस्कार का मालिक है। अरिहन्त है इसलिए हम नमस्कार करते हैं, वे नहीं होते तो किसको नमस्कार करते।
उन्होंने कहा पुण्य के उदय से जो मिला है, वह मेरा मान लेना पुद्गल द्रव्य की चोरी है और कर्म सत्ता इसका दण्ड देती है। एक बात समझ लेना, कर्म के चौपड़े में आपका, हमारा सबका हिसाब लिखा जाता है।
जब हम यहां से जाएंगे तो वे हिसाब मांगने वाले हैं। जो अपराध किया उसका दण्ड तैयार है। जो अपराध किया उसका दण्ड तैयार है। जो अच्छा कार्य जैसे दान, प्रभावना, पूजा अनुष्ठान का लाभ, साधर्मिक भक्ति आदि किया तो उसका इनाम भी तैयार रहता है।
इससे अगले भव में उत्कृष्ट कुल की प्राप्ति हो जाएगी। उन्होंने कहा उपमिति ग्रंथ की मूल कथा यहां शुरू हो रही है।