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सुंदेशा मुथा जैन भवन कोंडितोप में जैनाचार्य श्रीमद् विजय रत्नसेन सुरीश्वरजी म.सा ने कहा कि:-
आत्मा का मूल स्वभाव अणाहारी- अशरीरी है । परन्तु वह कर्मबद्ध होने से उसे जन्म लेना ही पड़ता है। आत्मा संसार मे रहे और शरीर तथा आहार बिना रह सके, यह बात असंभव है। शरीर टिकाने के लिये आहार आदि के अनेक पाप करने ही पडते है ।
जिनेश्वर भगवंत द्वारा निर्दिष्ट “श्रमण जीवन” ही ऐसा जीवन है, जो बिना पाप किये पसार किया जा सकता है । भूख मिटाने के लिये भोजन-चाहिये, प्यास मिटाने के लिये पानी, तन ढकने के लिये वस्त्र, सोने के लिये बिस्तर श्वास लेने के लिये हवा चाहिए। ये हवा पाना आदि आवश्यकताये है। इनके लिये किये हुए पाप अनिवार्य है।सर्दी लगे तो सुंठ- आदि गर्म पदार्थ चाहिए, भयंकर सर्दी हो तो ऊनी वस्त्र चाहिये , गर्मी हो तो ठंडे पदार्थों का सेवन ये सब अनिवार्य हो जाते हैं। इन सब सामग्रियों के लिये किये हुए अनुकूलता के पाप हैं।
आवश्यकता और अनूकूलता के लिये कुछ पापों से बचना कठिन है। मगर भोजन में स्वादिष्ट व्यंजन चाहिए, मिठाई, नमकीन चाहिए , कपड़े फैशनेबल चाहिए, कमरा वातानुकूलित चाहिए, गर्मी मे आईस्क्रीम, शीत पेय, बर्फ़, कोकाकोला आदि चाहिये । उ. वस्तुए विलासता में आती है । विलासता के पापों की पूर्ति के लिए बेईनामी , अनीति , मिलावट माप-तोल में गड़बड़ आदि के पाप बढ़ जाते हैं ।
लोभ यह ऐसा कषाय है, जिसे पार करना अत्यंत- अत्यंत कठिन हैं।
लोभ अर्थात् असंतोष।
लोभी व्यक्ति कभी तृप्त नहीं होता है। ईधन से आग तृप्त नही हो सकती ,नदियों के जल से सागर कभी तृप्त नहीं हो सकता तथा मृतकों से स्मशान तृप्त नहीं हो सकता, ठीक उसी प्रकार लोभी व्यक्ति धन से कभी तृप्त नहीं होता है। संसार में धन आदि की प्राप्ति होती है, अपने अपने पुण्य के अनुसार। पुण्य समित होने पर भी इच्छाएँ तो असीम ही होती हैं। इच्छाओं पर नियन्त्रण पाए बिना लोभ सागर का पार पाना अत्यन्त ही दुष्कर कार्य हैं।
इच्छाओं पर नियंत्रण हो, तो अल्प पुण्यवाला व्यक्ति भी आत्म साधना के लिए पुरुषार्थ कर सकता है। इसलिये हे मनुवा ! आत्म कल्याण करना हो तो सर्वप्रथम इच्छाओं को सीमित करो। उसमे ही कल्याण है।