श्री सुमतिवल्लभ नोर्थटाउन जैन संघ में प्रवचन देते हुए पूज्य आचार्य श्री देवेंद्रसागरसूरिजी ने कहा कि उत्तम आचरण अर्थात सद्गुण-सदाचार को ही धर्म कहा जाता है। धर्म के आचरण के द्वारा जो ऐहिक या पारलौकिक सुख की चाह करते हैं उनकी इच्छाओं की पूर्ति हो जाती है। इसी के साथ-साथ हमें यह भी जान लेना चाहिए कि दुर्गुण-दुराचारों से हमारा पतन होता है और सद्गुण-सदाचारों में हमारा हित है। अंत:करण में दो वृत्तियां हैं- एक मन रूप और दूसरी बुद्धि रूप।
सामान्यत: मन को दुर्गुण-दुराचार स्वभाव से ही प्रिय लगते हैं। बुद्धि को ये खराब लगते हैं। इसलिए बुद्धि उसका विरोध करती है। मन और बुद्धि के झगड़े में अधिकतर मन जीत जाता है। इसलिए मन पर विवेक का नियंत्रण लगा कर उसे समझाना चाहिए। अगर मन में यह बात ठीक से बैठ जाएगी कि खराब आचरण करने में मेरा पतन है तो फिर वह ऐसा आचरण नहीं कराएगा। एक बीमार व्यक्ति को वैद्य यह कहे कि अगर तू अमुक चीज खाना नहीं छोड़ेगा तो मर जाएगा तो वह व्यक्ति उस कुपथ्य का त्याग कर देता है। समझना होगा कि हम सब भी भवरोग से पीड़ित हैं। सो हमें अपना रोग और कुपथ्य ठीक से समझ आ जाए तो हम भी उसे छोड़ सकते हैं।
इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि सद्गुण, सदाचार और शास्त्रों द्वारा सुझाए मार्ग अमृत तुल्य हैं और दुर्गुण, दुराचार, प्रमाद, भोग आदि विष के समान। यदि दुगुर्णों को छोड़ने में और सद्गुणों को अपनाने में अपना सामर्थ्य कम मालूम पड़े तो किसी सद्गुरु की शरण में जाना चाहिए। सद्गुणों और सदाचार के बारे में ऐसा कहा जाता है कि उनकी प्राप्ति तो अनायास हो जाती है, लेकिन दुर्गुणों को छोड़ने के लिए प्रयास करना पड़ता है। इसी प्रकार पुण्य करना सरल है, पर पाप को छोड़ना कठिन। लोग पुण्य तो बहुत कर लेते हैं, लेकिन पाप को छोड़ते नहीं।
इसलिए पुण्य का जैसा फल मिलना चाहिए, वह नहीं मिलता। वैद्य वाली बात यहां भी लागू होती है। रोगी को जो दवाई दी वह तो उसने ने खा ली, लेकिन जिस चीज से परहेज के लिए कहा वह नहीं किया। इसलिए दवाई का उतना असर नहीं हो रहा। ऐसे अनेक लोग हैं जो मंदिर जाते हैं, तीर्थ स्थलों में जाते हैं, लेकिन इन सबके साथ-साथ पाप भी करते रहते हैं। उनसे पाप छूटता नहीं। दुर्योधन कहता था, मुझे पता है, क्या सही है और क्या गलत। धर्म-अधर्म क्या है, मुझे अच्छी तरह पता है, लेकिन मेरी भीतर कोई शक्ति है जो मुझे सही दिशा में जाने से रोकती है। बस उसी के अनुसार मैं जीता हूं। हमारे भीतर भी दुर्योधन की यह वृत्ति मौजूद होती है।