साहुकारपेट स्थित राजेन्द्र भवन में विराजित मुनि संयमरत्न विजयजी ने कहा प्रभु पाश्र्वनाथ की साधना हमें राग-द्वेष से दूर रहने की प्रेरणा देती है। नेमिनाथ चरित्र से हमें जीवों के प्रति करुणा भाव रखने की शिक्षा मिलती है, मूक पशुओं की रक्षा के लिए नेमिनाथ ने राजुल जैसे सुंदर स्त्रीरत्न का त्याग कर दिया, नव-नव भवों की प्रीत एक साथ तोड़ दी। आदिनाथ परमात्मा ने धन्ना सार्थवाह के भव में साधुओं को शुद्ध घी का आहार समर्पित कर समकित प्राप्त किया था।
अभिग्रहधारी प्रभु वीर ने इंद्रभूति के मन में चल रहे जीव के प्रति संदेह का समाधान करते हुए कहा जिस प्रकार दूध में घी, तिल में तेल, काष्ठ में अग्नि, फूल में सुगंध और चंद्र की कांति में अमृत होता है, उसी प्रकार शरीर में आत्मा का निवास रहता है। प्रभु पाश्र्वनाथ के चरित्रानुसार जगत में कमठ की तरह दुर्जन और धरणेन्द्र की तरह सज्जन ये दो तरह के जीव रहते हैं, लेकिन प्रभु पाश्र्वनाथ ने कमठ के प्रति न द्वेष किया और न ही धरणेन्द्र के प्रति राग।
प्रभु आदिनाथ पूर्व भव में जब सेठ के रूप में थे, तब बैल द्वारा बार-बार अनाज में मुंह डालने पर किसान को सलाह दी कि इसके मुख पर छीका बांध दो और बारह प्रहर तक छीका बंधे रहने से अंतराय कर्म बंध गया, परिणाम स्वरूप आदिनाथ परमात्मा को बारह माह तक आहार-पानी नहीं मिला। उन्होंने इस युग के प्रारंभिक काल में अज्ञ जीवों को असि-मसि व कृषि का ज्ञान दिया।
खाना-पीना व जीना सिखाया। दुनिया हमारे भाव को नहीं प्रभाव को देखती है। परीक्षा उसी की होती है जो समीक्षा में खरा उतरता है। जिस तरह घर्षण, छेद, ताप और ताडऩ द्वारा सोने की परीक्षा होती है, उसी तरह त्याग, शील,गुण और कर्म से पुरुष की परीक्षा होती है। इस मौके पर तपस्वियों ने 11, 9 और 8 उपवास का पच्चखाण लिया।