वेपेरी स्थित जय वाटिका मरलेचा गार्डन में चातुर्मासार्थ विराजित जयधुरंधर मुनि ने कहा दुखों से बचने के लिए धर्म में प्रवृत्ति, अधर्म में निवृत्ति ही एकमात्र उपाय है। मगर विडंबना है कि व्यक्ति पुण्य का फल चाहता है, लेकिन पुण्य करता नहीं है। पाप का फल नही चाहता है पर पाप करता है। पाप भले ही अज्ञानता में किये हो उसका भी फल भोगना पड़ेगा।
मुनि ने आगे कहा आत्मा ही कर्ता है और आत्मा ही भोक्ता है। स्वयं के कर्म स्वयं को ही भोगना पड़ेगा पाप के फल भोगने में सहभागिता नहीं होती । साधक को परिणामदर्शी होना चाहिए ,परिमाणदर्शी नहीं। हर कार्य करने से पहले उसके परिणाम का चिंतन करना चाहिए।
मुनि ने श्रावक के छठे गुण पाप भीरु का विवेचन करते हुए कहा हर व्यक्ति को पाप से भीति और धर्म से प्रीति रखनी चाहिए। मनुष्य को पाप करते समय किंचित भी भय नहीं होता है वह मनुष्य जघन्य श्रेणी का होता है।
जो व्यक्ति आवश्यकता होने पर या मजबूरी में पाप करता है, उसके दिल में कंपन , पाप के प्रति घृणा, प्रायश्चित के भाव हो तो वह एक दिन पाप का निरोध कर सकता है।
जयकलश मुनि ने “जो बोयेगा वो ही पायेगा… जैसी करणी वैसी भरणी…बोये बीज बबूल के फूल कहां से आए’ गीतिका के द्वारा पाप पुण्य का बहुत ही सुंदर विवेचन किया।
मुनिवृंद के सानिध्य में शनिवार को 24 तीर्थंकर की साधना प्रारंभ हुई जिसमें 85 साधिकाओं ने हिस्सा लिया। रविवार को प्रातःकाल अणुप्पेहा ध्यान कक्षा, एवं बच्चों के लिए जयमल जैन आध्यत्मिक ज्ञान – ध्यान संस्कार शिविर और मध्यान्ह में विशेष प्रवचन का आयोजन होगा।