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पाप में मन मत लगाओ लेकिन धर्म बिना मन के मत करो: साध्वी नूतन प्रभाश्री जी

पाप में मन मत लगाओ लेकिन धर्म बिना मन के मत करो: साध्वी नूतन प्रभाश्री जी

उन्होंने बताया जीवन में कर्मों का खेल और इससे मुक्त होने के उपाय

Sagevaani.com /शिवपुरी ब्यूरो। संसार में जीवन चलाने के लिए कुछ न कुछ गलत काम और पाप करने होते हैं, लेकिन पाप करते समय उसमें अपने मन को मत लगाओ वहीं धर्म मन लगाकर करो। बिना मन के धर्म किए जाने का कोई अर्थ नहीं है। उक्त उदगार प्रसिद्ध जैन साध्वी नूतन प्रभाश्री जी ने स्थानीय कमला भवन में आयोजित धर्मसभा में व्यक्त किए। धर्मसभा में साध्वी नूतन प्रभाश्री जी ने भगवान महावीर की अंतिम वाणी उत्तराध्यन सूत्र का वाचन करते हुए जीवन में कर्मों का क्या महत्व और प्रभाव है इसे विस्तार से समझाया और कर्मों से मुक्त होने के उपाय भी बताए।

धर्मसभा में साध्वी वंदनाश्री जी ने कभी खुशियों का मेला है, कभी आंखों में पानी है। जिंदगी और कुछ नहीं सुख दुख की कहानी है, भजन का गायन कर माहौल को भक्ति रस की गंगा से सराबोर कर दिया। साध्वी नूतन प्रभाश्री जी ने आठ कर्मों में से पहले कर्म ज्ञानावर्णीय कर्र्म की व्याख्या करते हुए कहा कि यदि हम किसी के ज्ञान में बाधक बनते हैं तो हमारी आत्मा पर ज्ञानावरणीय कर्म का सांया रहता है जिससे जीवन में अज्ञानता का प्रकाश रहता है।

देव गुरू और धर्म के प्रति श्रद्धा न रखने से आत्मा दर्शनावरणीय कर्म से युक्त होती है। तीसरे वेदनीय कर्म की व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा कि ईश्वर का विधान है सुख दो और सुख लो तथा दुख दो और दुख लो अर्थात जैसा हम बोते है वैसा हमें काटना पड़ता है। इसलिए जीवन में ऐसे कर्म करना चाहिए जो दूसरों के लिए आनंद दायक हो। ऐसे कर्मों से अपने आपको दूर रखना चाहिए जो दूसरों के लिए पीड़ा दायक हों।

साध्वी जी ने बताया कि हमें साता वेदनीय कर्म का वंध करना चाहिए। न की असाता वेदनीय। राग और द्वेष से मुक्त होकर हम मोहनीय कर्म से मुक्त हो सकते हैं। आयुष्य कर्म की व्याख्या करते हुए कहा कि जीवन के तीसरे काल में आयुष्य कर्म का बंध होता है। अर्थात यदि हमारी आयु 60 वर्ष है तो 40 से 60 वर्ष की आयु में आयुष्य कर्म का बंध होता है। इससे स्पष्ट है कि जीवन के अंतिम क्षण तक आयुष्य कर्म का बंध हो सकता है। आयुष्य कर्म का बंध होने के बाद ही आत्मा शरीर से मुक्त होती है और उसका पुर्नजन्म होता है।

किसी दूसरे को अच्छे कार्य में अंतराय देने से अंतराय कर्म का बंध होता है। जिससे हमें अपने जीवन में पग-पग पर बाधाओं का सामना करना पड़ता है। इससे मुक्त होने के लिए आवश्यक है कि हम दूसरों को उनके अच्छे कार्य करने के लिए प्रोत्साहित करें। उनके सद कार्यां में बाधक न बनें। साध्वी जी ने नाम कर्म और गौत्रकर्म पर भी विस्तार से प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि नाम कर्म का बंध होने से व्यक्ति को यश, रंग, रूप आदि की प्राप्ती होती है जबकि गौत्रकर्म के बंध होने से अच्छे कुल की प्राप्ती होती है।

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