किलपाॅक में विराजित आचार्य तीर्थ भद्रसूरिश्वर ने कहा यह संसार अबूझ है, अज्ञानी है। जो भूल कर लेते, कोई बात नहीं लेकिन भूल को स्वीकार नहीं करना गलत है। आप पापों व दोषों की जितनी आत्मनिंदा करेंगे उतने ही पापों का क्षय होगा। जब चित्त निर्मल होगा तब ही आत्मा निर्मल हो पाएगी।
पाप का पश्चाताप न होना आलोचना के लायक नहीं है। यदि पश्चाताप हुआ तो सद्गुरु की खोज करो। यदि आत्मनिंदा करते हुए साधक सद्गुरु के पास जा रहा है, उसे यह भाव होते होते केवल्य ज्ञान भी प्राप्त हो सकता है। वह गुरु के पास पहुंचा भी नहीं, प्रायश्चित भी नहीं किया, गुरु के दर्शन भी नहीं हुए, लेकिन यह भाव का परिणाम है।
उन्होंने कहा दुष्कृत करना अपराध है लेकिन दुष्कृत की आलोचना न करना महाअपराध है। आलोचना जितनी करोगे उतने ही पाप हल्के होते जाएंगे। एक पाप की हृदय से निंदा करते हुए हजारों भव के कई पाप नष्ट हो जाएंगे। उन्होंने कहा साधना जीवन में प्रवेश की पहली सीढ़ी है अपने दोषों का पश्चाताप करना। पश्चाताप करने पर दूसरों के प्रति द्वेष, तिरस्कार नहीं होगा।
यदि आप अपने जीवन में पाप करते हैं तो दूसरों के प्रति द्वेष लाने का आपको क्या अधिकार है। मैं दूसरों के प्रति ईर्ष्या क्यों करूं यह भावना होनी चाहिए। जो पाप मैंने किए है उसको स्वीकार करने की बुद्धि परमात्मा की कृपा से मिली है यह भावना हृदय में होनी चाहिए। आपके मन में पश्चाताप हुआ तो समझना आप पर परमात्मा की कृपा हुई है। यही दुष्कृतगर्हा है।
इसमें अनकण्डीशनल सरेंडर होना चाहिए और यह बुद्धि व अहंकार छोड़ने से ही संभव है। हृदय में शुद्ध समर्पण की भावना होनी चाहिए। जहां बुद्धि व अहंकार नहीं है वहीं शरणागति हो सकती है। परमात्मा की भक्ति में आत्मनिवेदन होना चाहिए। उन्होंने कहा क्षमा के प्रभाव से जो कार्य नहीं हो सके वह भी हो जाते हैं।
जब क्रोध का आगमन हमारे अन्दर हो जाता है बुद्धि भी काम नहीं करती है। पश्चाताप वैर की प्रथा को खत्म कर देते हैं। हृदय में क्षमा होने पर वातावरण सकारात्मक हो जाता है। क्षमा गुणरत्नों की खान है। क्षमा सर्व गुणों का आधार है। यह एक महादान है। यदि क्षमा नहीं है तो दूसरे गुण भी सुरक्षित नहीं है। एक साधु के हृदय में क्षमा भाव नहीं है तो वह साधुत्व नहीं है।
यदि हृदय में क्षमा नहीं है तो आपका दान कुछ काम का नहीं है। जिसके हृदय में क्षमा है पूरी दुनिया उसे याद करने वाली है। क्षमा महान् तप है। महान् से महान् तपों से भी क्षमा महान् है। यह तप से भी महातप है।