एस एस जैन संघ नार्थ टाउन में चातुर्मासार्थ विराजित गुरुदेव जयतिलक मुनिजी ने बताया कि भगवान कहते हैं पापी से नहीं पाप से घृणा करो। पाप को जानना और पाप को छोडना आवश्यक है। पापी को सुधारा जा सकता है। पापी से पाप छुड़ाने के लिए उससे घृणा छोड़नी होगी। तभी हम पापी को पाप से मुक्त कर सकते है। अभ्यास से ये सब सम्भव है। पापी से पापी व्यक्ति भी पाप को छोड़कर मोक्ष में जा सकता है। ज्ञानीजन कहते है इसलिए पाप, एकान्त रूप से छोड़ने योग्य है। आचरण करने योग्य है क्योकि संसार में सारे दुःखो का कारण पाप है। अत: पाप से निवृत होना आवश्यक है।
ज्ञानीजन कहते है भविष्य की चिन्ता छोड़ वर्तमान को सुधारों यदि वर्तमान संवर गया तो भविष्य अपने आप संवर जायेगा और भूतकाल का चिन्तन मत करो इसलिए भगवान कहते हैं कि वर्तमान में पच्चखान करों स्वयं को पाप से निवृत करो जिससे की भविष्य मे दुःख न आये। भूतकाल का चिन्तन करने से आद्र ध्यान रौद्र ध्यान बढ़ता है अत: भूतकाल जो बीत गया उसका चिन्तन मत करो। सुबह उठते ही अपने इष्ट को नमन करो फिर माता पिता के चरण स्पर्श करो उसके बाद अन्य कार्य करो । पर आज वर्तमान में सब पहले उठते ही मोबाइल को देखते है। सुबह उठ कर नित्य अपने आराध्य के स्मरण करने से दिन शुभ होता है और अपने आराध्य के दर्शन की प्रबल इच्छा जागृत होती है।
भगवान ने पाप से बचने का मार्ग बता दिया पाप से बचने का निर्देश भी दे दिया व्रत – प्रत्याख्यान बता दिये फिर भी यदि जीव स्वयं पुरुषार्थ न करे तो उसे अपने बाँधे कर्मों से मुक्ति नही मिल सकती। आज व्यक्ति के लिए पाप छोड़ना आसान नही पर धर्म को छोड़ना बहुत आसान हो गया है। जो दृढधर्मी होता है वो अपने संकल्प के अनुसार अपना नित्य नियम का अनुसरण करते है पूरा प्रयत्न करो। पाप पुण्य का ज्ञान दो। जीव- अजीव का ज्ञान दो। प्यासे को पानी पिलाना पुण्य है जबकि आज प्यासे को पानी पिलाना धर्म मानते है।। पुण्य को धर्म मानना मिथ्यात्व है। इसलिए यथार्थ ज्ञान होना आवश्यक है।
क्योंकि किसी भी प्रवृत्ति की सफलता के लिए पूरी जानकारी आवश्यक है। मोक्ष में जाने के लिए धर्म प्रवृति आवश्यक है ये ज्ञान होने से ही व्यक्ति धर्म क्रिया की ओर अग्रसर होगा। पुण्य से क्षणिक सुख प्राप्त होता है जबकि धर्म क्रिया से शाश्वत सुख की प्राप्ति होती है। सही संस्कारो से सही ज्ञान होने से ही व्यक्ति जो ग्रहण करने योग्य है उसे ग्रहण करेगा और पाप-पुण्य को जानकर उसे छोड़ने की प्रवृत्ति रखेगा क्योंकि पाप-पुण्य दोनो आस्त्रव है। धर्म तो संवर है। संवर से ही मुक्ति मिलेगी।