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पानी पीजे छान के और गुरु कीजे जान के: देवेंद्रसागरसूरि

पानी पीजे छान के और गुरु कीजे जान के: देवेंद्रसागरसूरि

श्री सुमतिवल्लभ नोर्थटाउन जैन श्वेतांबर मूर्तिपूजक संघ में नवपद ओली के तीसरे दिन पूज्य आचार्य श्री देवेंद्रसागरसूरिजी ने प्रवचन देते हुए कहा कि राजा अपने राज्य की रक्षा के लिए अभेद्य किले बनवाता है, ताकि शत्रु के जब आक्रमण करने आए तो किले को देखकर ही लौट जाए। इंसान खाली पड़ी अपनी जमीन के चारों ओर बाउंड्री वॉल बनवाता है, ताकि वह आम लोगों से सुरक्षित रह सके। किसान खेत के चारों ओर मेड़ बनवाता है। जिससे जानवरों से फसल की रक्षा हो सके। इसी प्रकार अध्यात्म पथ का साधक अपने मन, हृदय और जीवन को अनेक प्रकार की शुभ भावनाओं से शुभ विचारों से और शुभ प्रवृत्तियों से अपने जीवन को सुरक्षित रखते है. उन्होंने कहा कि विज्ञान जगत में आश्चर्य भाव की प्रधानता है। धर्म जगत में विस्मय भाव की प्रधानता है।

अपने अंत:करण से पूछे कि हमें प्यास पदार्थ की है या परमात्मा की, हमें तड़पन संपत्ति की है या सदगुणों की, हमें तलब सुख पाने की है या आनंद पाने की। जिस प्रकार नदियां सागर में समा जाती है, सभी फूल मुरझा जाते हैं। उसी प्रकार पदार्थ जगत की सारी वृषा, तलब, तड़पन, अतृप्ति में परिवर्तित हो जाती है। जिस तरह मेहंदी पिसाने के बाद भी रंग देती है, चंदन घिसाने के बाद भी सुगंध देता है, उसी प्रकार परमात्म क्षेत्र की तमाम तृषा तलब तड़पन हमें प्रसन्नता देती है। नवपद ओली के तीसरे पद पर विराजित आचार्य पद की महिमा का वर्णन करते हुए वे आगे बोले की जीवन विकास के लिए भारतीय संस्कृति में गुरु की महत्वपूर्ण भूमिका मानी गई है।

गुरु का सान्निध्य, प्रवचन, आशीर्वाद और अनुग्रह जिसे भी भाग्य से मिल जाए उसका तो जीवन कृतार्थता से भर उठता है क्योंकि गुरु बिना न आत्म−दर्शन होता है और न परमात्म−दर्शन। गुरु भवसागर पार पाने में नाविक का दायित्व निभाते हैं। वे हितचिंतक, मार्गदर्शक, विकास प्रेरक एवं विघ्नविनाशक होते हैं। उनका जीवन शिष्य के लिये आदर्श बनता है। उनकी सीख जीवन का उद्देश्य बनती है। अनुभवी आचार्यों ने भी गुरु की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए लिखा है− गुरु यानी वह अर्हता जो अंधकार में दीप, समुद्र में द्वीप, मरुस्थल में वृक्ष और हिमखंडों के बीच अग्नि की उपमा को सार्थकता प्रदान कर सके। आज नकली, धूर्त, ढोंगी, पाखंडी, साधु−संन्यासियों और गुरुओं की बाढ़ ने असली गुरु की महिमा को घटा दिया है।

असली गुरु की पहचान करना बहुत कठिन हो गया है। भगवान से मिलाने के नाम पर, मोक्ष और मुक्ति दिलाने के नाम पर, कुंडलिनी जागृति के नाम पर, पाप और दुख काटने के नाम पर, रोग−व्याधियां दूर करने के नाम पर और जीवन में सुख और सफलता दिलाने के नाम पर हजारों धोखेबाज गुरु पैदा हो गये हैं जिनको वास्तव में कोई आध्यात्मिक उपलब्धि नहीं है। जो स्वयं आत्मा को नहीं जानते वे दूसरों को आत्मा पाने का गुर बताते हैं। तरह−तरह के प्रलोभन देकर धन कमाने के लिए शिष्यों की संख्या बढ़ाते हैं। जिसके बाड़े में जितने अधिक शिष्य हों वह उतना ही बड़ा और सिद्ध गुरु कहलाता है। मूर्ख भोली−भाली जनता इनके पीछे−पीछे भागती है और दान−दक्षिणा देती है। ऐसे धन−लोलुप अज्ञानी और पाखंडी गुरुओं से हमें सदा सावधान रहना चाहिए। कहावत है कि ‘पानी पीजे छान के और गुरु कीजे जान के।सच्चा गुरु ही भगवान तुल्य है।

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