एसएस जैन संघ एमकेबी नगर स्थानक में विराजित साध्वी धर्मप्रभा ने कहा प्रमादवश, कषाय वश हमारे द्वारा किए गए पापों का प्रायश्चित करना चाहिए। पश्चाताप तो हृदय की प्रज्वलित की गई वह ज्वाला है जिसमें हमारे पाप जलकर भस्म हो जाते हैं। बड़े बड़े पापी हत्यारे और पतित भी पश्चाताप की अग्नि में जलकर पावन हो जाते हैं।
जिस प्रकार एक भार वाहक अपना भार उतार कर हलका महसूस करता है इसी प्रकार एक साधक अपने दृष्ट कृत्यों की आलोचना निंदा व पश्चाताप कर के पाप से हल्का हो जाता है। हार्दिक रूप से किया गया पश्चाताप व भविष्य में भूलों को नहीं दोहराने का संकल्प ही सच्चा प्रायश्चित है। ऐसा करने पर हृदय की कलुषता कांति में बदल जाती है। भूल का हो जाना पाप है मगर भूल को छिपाना महापाप है और भूल को बार बार दोहराना पशुता की मूर्खता की निशानी है।
साधना के कंटकपूर्ण मार्ग पर चलते हुए साधु या गृहस्थ किसी से भी भूल हो सकती है मगर एक सच्चा साधक त्रुटियां होने पर भी दुखी होता है और भविष्य में त्रुटि न हो इस भाव से दृढ़ संकल्प करता है। साध्वी स्नेहप्रभा ने कहा कि जिस साधक के हृदय में समभाव का स्रोत सतत प्रवाहित होता है उसी को शाश्वत सुख की प्राप्ति होती है। और वही अपने कर्म बंधन को काटकर फेंक सकता है।
राग और द्वेष दोनो ही विषम है आत्मा को कलुषित और संप्तत करते हैं। इसके विपरित समभाव आत्मा का स्वयं का शुद्ध परिणाम है यानी समभाव ही सच्चे सुख का हेतु है। यही चारित्र और सच्ची आराधना और साधना है। समभाव रूप सामयिक के बिना न किसी को मोक्ष प्राप्त हुआ है न भविष्य में होगा।