चेन्नई. पुरुषवाक्कम स्थित एएमकेएम में विराजित साध्वी कंचनकंवर व साध्वी डॉ.सुप्रभा ‘सुधाÓ के सानिध्य में साध्वी डॉ.इमितप्रभा ने कहा कि आत्मा का कर्म के साथ कषाय योग के निमित्त बंध होता है।
चार कषाय बताए गए हैं जिनकी चारों ही गतियों में प्रमुखता है, नरक में क्रोध, तीर्यंच में माया, मनुष्य गति में मान और देवगति में लोभ होता है। मनुष्यगति में मान होता है, दिखता नहीं।
चिंतनशील मनुष्यों ने कहा है क्रोध का कारण मान है, जो मीठा जहर है। मनुष्य अधिकार पर जोर रखता है व कर्तव्य भूलता है। सामाजिक, पारिवारिक, आध्यात्मिक सभी क्षेत्र में उसके साथ मान रहता है। बाना बदलने लेकिन बाण नहीं बदली तो उद्धार नहीं होगा।
बाह्य तप ही नहीं अभ्यंतर में विनय का तप होना चाहिए। विनय धर्म का मूल है, उसका ध्यान नहीं तो साधना व्यर्थ है। चिंतन करें भावधारा बदलें तो जीवन बदल जाए। पश्चाताप करने से 8 कर्मों का क्षय होता है। हृदय से पश्चाताप करने से अनादीकाल के पापों का प्रक्षालन हो जाता है। प्रतिपल मन में भूत की स्मृतियां या भविष्य की कल्पना चलते रहते हैं।
चिंतन, पुरुषार्थ करें और अपने विचारों को देखें, यह आर्तध्यान है। इनसे हटकर आत्मभावों में आना है। स्व में रहना है पर में नहीं, यह पराक्रम कर लिया तो जीना आ जाए। जितना पर में जीएंगे, कर्म का बंध होगा। आत्मा से लडऩा है, पर नहीं स्व दृष्टि रखनी है, अशुभ से शुभ भावों में आना है।
आदतों से स्वभाव बनता है और स्वभाव से संस्कार बन जाते हैं। आदत और स्वभाव को बदला जा सकता है लेकिन संस्कार को बदलना मुश्किल है, यह जन्मजन्मांतर तक चलते हैं। इन्हें मिटाना है तो जिनवाणी श्रवण और स्वाध्याय का आश्रय लें, स्व आत्मदृष्टि में रहना है, बाह्य सहारा नहीं लेंगे तो आत्मा की जीत होगी।
साध्वी नीलेशप्रभा ने कहा कि प्रभु ने उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है राग, द्वेष दोनों कर्म के बीज हैं। जो मनोज्ञ शब्द, रूप, धन पर राग करता है वह असमय मृत्यु को प्राप्त होता है। जो अमनोज्ञ शब्द आदि पर द्वेष करता है वह दुख पाता है। राग और द्वेष आग के समान है। द्वेष तो कुछ समय बाद शांत हो जाता है पर राग जल्दी शांत नहीं होता।
रागान्ध प्राणी हित-अहित नहीं देखता। इसमें एक बार फंसे तो निकलना मुश्किल हो जाता है। धर्मस्थान जाने, माला फेरने और प्रवचन सुनने में व्यक्ति को थकान होती है। धर्मकार्य करने में बाधा आती है, क्योंकि उसमें मनुष्य का राग नहीं है और लेकिन विलासिता में राग होने से सहज ही समय गंवा रहता है।
राग ऐसा विष है कि प्राणी को जीवन गंवाना पड़ता है, राग की प्रबलता से विवेक नष्ट होता है। गौतमस्वामी का प्रभु महावीर के प्रति राग था जो उनके केवलज्ञान प्राप्ति में बाधक रहा। संत महापुरुष कहते हैं यह संसार रागमय है इसे छोड़ें तो परमसुख, आत्मिक शांति को प्राप्त करेंगे।
साध्वी डॉ.हेमप्रभा ‘हिमांशुÓ ने प्रात: पुच्छीशुणं सम्पुट जप की साधना सामूहिक रूप से करवाई। धर्मसभा में जेपीपी महिला मंडल दर्शनार्थ पहुंचा, साथ ही अनेकों श्रद्धालुओं की उपस्थिति रही।
5 से 13 अक्टूबर तक नवपद ओली तथा पुच्छिशुणं प्रतियोगिता आयोजित होगी, 8 अक्टूबर से उत्तराध्ययन सूत्र आराधना की शुरुआत होगी।