चेन्नई. शुक्रवार को उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि व तीर्थेशऋषि महाराज ने वेस्ट माम्बलम, चेन्नई में राजस्थानी जैन समाज को संबोधित किया। उपाध्याय प्रवर ने कहा कि चेन्नई में जितने परोपकार और सेवा के काम चलते हैं राजस्थानी समाज द्वारा चलाए जाते हैं। राजस्थानी-मारवाड़ी जहां भी कहीं गए, वहां पराए को अपना बनाने की कला इस समाज के अन्तर रक्त में समाई हुए है। ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जहां राजस्थानी समाज न पहुंचा हो। यह रणबांकुरों का समाज है। इसकी परंपरा है अपनी इज्जत को सुरक्षित के लिए सारे सुखों को त्यागकर, जान भी लगा देना और यही इस समाज की विशेषता है।
देश के कई स्थानों पर राजस्थानियों के विपरीत माहौल भी बनता है। लेकिन इसका क्या कारण है इस पर चिंतन करने की जरूरत है। आज के समय में वह अपनों के लिए खड़ा होने का हौसला कहां चला गया। हम दूसरों के लिए तो स्ट्राइक और सपोर्ट कर सकते हैं लेकिन अपने समाज के भाई के लिए स्ट्राइक और सपोर्ट नहीं कर सकते। महाभारत भी युद्ध है और रामायण भी लेकिन दोनों में अन्तर है। समाज के लिए किसी एक को तो चुनना ही होगा। जहां भाई-भाई से लड़ता है वहां महाभरत होता है, जहां परायों से लड़ा जाता है वहां रामायण होता है। राम के साथ घर में अन्याय होता है, वे योग्य है फिर भी वनवास जाना पड़ा, लेकिन फिर भी उन्होंने अपनों के लिए अन्याय स्वीकार किया। अपनों के प्यार पाना हो तो अन्याय को भी स्वीकार करना पड़ता है, लेकिन परायों का अन्याय कभी स्वीकार न करें यही रामायण का सूत्र है।
वास्तविक जीवन में हमें भी कहीं न कहीं अन्याय को स्वीकार करना ही पड़ता है। कोई बदमाश रूपए मांगता है तो बिना पूछे देना पड़ता है लेकिन अपने भाई को हिसाब पूछते हैं। दुर्योधन कर्ण को बिना मांगे राज्य दे सकता है लेकिन पांडवों को पांच गांव भी नहीं देता है। हमें चिंतन करना चाहिए कि हम क्या कर रहे हैं। जितना दान हम दूसरों को देते हैं उतना यदि समाज की संस्थाओं को दे दिया जाए तो समाज की उन्नति कहां की कहां पहुंच सकती है। परायों का तो प्रोटोकाल फोलो करते हैं लेकिन अपनों को अहमियत नहीं देते हैं। क्या यह जिंदगी की शान है। आज समाज के लोगों को एक मंच तैयार करने की आवश्यकता है कि समाज में क्या चल रहा है और क्या होना चाहिए, इस पर चिंतन कर समाधान निकालने की जरूरत है।
राम ने लड़ाई लड़ी तो नारी शक्ति के सम्मान के लिए लड़ी, मात्र अपनी पत्नी से प्रेम के लिए नहीं। आज वह राम और शिवाजी के जैसा हौसला और जुनून कहां गया हमारे समाज में। अपना इतिहास भूलकर केवल हम लोग परायों को गले लगा लेंगे लेकिन अपनों का गला घोंटने का काम नहीं छोड़ते हैं। अपने बच्चों को दूसरों की संस्कृति में पढ़ाने-लिखाने और पराए संस्कार देनेवाले तथा अपने हाथों से कान्वेंट स्कूलों में अपने बच्चों का धर्मांतरण करानेवाले मां-बाप पूरे समाज के लिए दुर्भाग्य लाते हैं। जब बचपन में आप उन्हें धर्म-संस्कार नहीं दे रहे तो उनके युवा बनने के बाद उनसे धर्म में आस्था की अपेक्षा कर नहीं पाओगे। क्रिश्च्यिनिटी कान्वेंट स्कूलों में पढऩवाले आपके बच्चे शाम को कैसे प्रवचन सुन पाएंगे। इस प्रकार की मानसिकता हमारी संस्कृति और संस्कारों का नाश करनेवाली है। इसके परिणाम भयंकर आनेवाले हैं।
इसके समाधान के लिए एक सुर में शुरुआत करना जरूरी है। केवल पेट की खुराक लेनेवाला पशु है और जिनको दिल और दिमाग दोनों की खुराक चाहिए वही इंसान हैं। इसलिए पशुओं का समूह होता है और इंसानों का समाज होता है। जिसमें समझ होती है, वह इंसान होता है। बिना समझ का जुटते रहोगे तो गुम हो जाओगे। समझ के साथ मिलते रहोगे तो मजबूती से खड़े रह पाओगे।
आपका समाज खाने-पीने और समारोहों के लिए इक_ा होता है लेकिन सोचने, समझने और चिंतन मनन के लिए इकट्ठा नहीं होता है। आज समाज में इसकी महत्ती आवश्यकता है। यह समाज गाय के समान है जिसे दूहोगे तो दूध, दही और घी भी मिलेगा अन्यथा बिना दूहे तो अपशिष्ट मिलेगा। आज के समय में समाज और संघों में लोग अपनी राजनीति करने में लगे रहते हैं, इस प्रवृत्ति को त्याग दें। अपनों को गले लगाते रहें और अपनों का अन्याय झेलने के लिए दिल बड़ा रखें, लेकिन के परायों का अन्याय का विरोध करने के लिए तत्पर रहें।
जिस दिन अपनों से न्याय मांगोगे तो न्याय तो मिल जाएगा लेकिन अपनों को आप खो दोगे। समाज और परिवार न्याय से नहीं बल्कि प्रेम से चलता है। अपनों के लिए गाय बनो और परायों के लिए शेर बन जाओ। परमात्मा के समवशरण में शेर और गाय दोनों शामिल रहते हैं। समाज समझ के साथ चलता है। राम की तरह अपना कैरेक्टर और नीति ऐसी बनाओ कि दुश्मन का भाई भी आपका पूजारी बनने को तड़प जाए। ऐसी व्यवस्था बनाएं और तब तक चैन से न बैठें जब तक राजस्थानी समाज के आत्मसम्मान और आत्मगौरव को सुरक्षित न बना दें।