चेन्नई. रायपुरम स्थित सुमतिनाथ जैन भवन में विराजित आचार्य मुक्तिप्रभ सूरीश्वर के सान्निध्य में हितप्रभ मुनि ने कहा दुखों के कारण-रूप असंतोष, अविश्वास और आरंभ को मूच्र्छा का फल मानकर परिग्रह पर नियंत्रण करना चाहिए।
मूच्र्छा ही परिग्रह है। संतों का अपरिग्रह व्रत महाव्रत है। वस्त्र, पात्र, कंबल व आसन आदि जो संयम यात्रा में अति उपयोगी हैं इतनी वस्तुओं को रखने का प्रावधान है। अधिक रखने से परिग्रह का दोष लगता है।
गृहस्थ के लिए यही व्रत परिग्रह परिमाण व्रत है। धन-धान्य, वस्त्र-स्वर्ण, रोप्य-द्विपद प्राणी-चतुष्पद संपत्ति आदि आदि रखने का प्रावधान है लेकिन उनकी एक निश्चित सीमा रखनी चाहिए। सीमा से अधिक धन हो जाए तो परोपकार में लगा देना चाहिए।
धन तो पुण्य, त्याग व संयम से मिलता है। फल की आशा के बिना भगवान की भक्ति करें तो संतोष रूपी धन स्वत: हाथ लग जाएगा। संतोषी नर सदा सुखी होते हैं।
जिसकी संचय और संरक्षण वृत्ति है वह व्यक्ति आसक्ति, मोह, ममत्व, मूच्र्छा, लालसा व लोभ आदि पापों में गिर जाता है। लालसा की पूर्ति न होने पर वैर-विरोध, घृणा, ईष्र्या, कलह, दोषारोपण आदि करता है।