चेन्नई. थाउजेंड लाइट जैन स्थानक में विराजित जयधुरंधरमुनि ने कहा जिन वाणी सभी प्रकार की के शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने में सहायक सिद्ध होती है। आत्मा का सबसे बड़ा शत्रु कर्म है। कर्म को पराजित करने के लिए सर्वप्रथम मन को जीतना आवश्यक है। जो साधक एक मन पर विजय प्राप्त कर लेता है चार कषाय भी उससे हार जाते हैं और पांच इंद्रियों के ऊपर भी नियंत्रण हो जाता है।
व्यक्ति दूसरों पर तो जीत हासिल करना चाहता है जैसे सास बहू पर, पिता पुत्र पर, मालिक नौकर पर अधिक आधिपत्य जमाना चाहता है। जब तक स्वयं पर विजय प्राप्त नहीं करेगा तब तक उसको दूसरों पर जीत नहीं मिल सकती। परानुशासन से पहले आत्मानुशासन जरूरी है। मन को वश में करने का अचूक मंत्र यही है कि मनुष्य को मन का सेवक न बनकर मन को सेवक बनाना होगा।
मर्कट, मधुकर, मेघ, मरुत, मत्स्य के समान मन भी अस्थिर है। इस चंचल मन पर नियंत्रण दुष्कर है लेकिन असंभव नहीं है। मनुष्य को दो आवाजें सुनाई देती हैं एक मन की और दूसरी आत्मा की। जो मन के अनुसार चलता है वह दुर्गति में चला जाता है।
आत्मा की आवाज सुनकर कार्य किए जाते हैं, तो सफलता मिलती है। इसलिए मन कहे वैसा नहीं आत्मा कहे वैसा करना चाहिए। मन को उपेक्षित रखते हुए आत्मा जैसी गवाही दे वैसे ही करना श्रेष्ठ है।