त्रिदिवसीय शिविर की शुरुआत
चेन्नई. पुरुषवाक्कम स्थित एएमकेएम में विराजित साध्वी कंचनकंवर व साध्वी डॉ.सुप्रभा ‘सुधा’ के सानिध्य में साध्वी डॉ.इमितप्रभा ने कहा कि धन से शांति मिलती तो धनवानों को सुख की नींद आती। धन कुछ हद तक सुख, शांति देता है लेकिन परमेश्वर स्थाई शांति और सुख देते हैं।
धन-संपदा इस भव में साथ देने की भी गारंटी नहीं, लेकिन परमेश्वर तो भव-भव में साथ रहते हैं। हमारी आत्मा ही परमेश्वर है, जरूरत है उसे जगाने की। परमात्मा के मार्ग पर पहला कदम रखते ही साधक टेंशन से मुक्त हो जाता है और परमात्मा प्राप्ति का आनन्द तो अनन्त सुख है।
कर्मबंध कषाय और लोभ से होता है। ज्ञानीजन कहते हैं मनुष्य मन से कर्म निर्जरा और कर्मबंध भी होता है। चंचल मन को असंयम से संयम में लगाना मन गुप्ति है। वचन में विवेक हो तो पराया भी अपना। सदैव सोच-समझकर, हितकारी और मितकारी बोलना वचन गुप्ति है। मन की तरह काया भी चंचल है। उठना, बैठना, सोना, खाना-पीना आवश्यक कार्य है लेकिन इनमें भी विवेक, संयम और जागृति रखना है।
काया की सब चेष्टाओं को विवेक, संयम से प्रवृत्ति करेंगे, कायोत्सर्ग, ध्यान से आत्म केन्द्रित करेंगे यह काया गुप्ति कहलाती है। मन, वचन, काया का योग मिला है, इसे अशुभ से शुभ और शुभ से शुद्धता में लाना है, आत्मा से जोडऩा है। उन्होंने कहा कि नमिराजऋषि विप्ररूपधारी इंद्र को कहते हैं कि मैंने श्रद्धा के नगर में क्षमा का किला और मन, वचन काया की गुप्ति की खाई बनाई है जिससे नगर की रक्षा करूंगा।
साध्वी नीलेशप्रभा ने कहा कि इस संचरणशील संसार में सभी दुखी हैं और दुख से मुक्त होना चाहते हैं। उत्तराध्ययन में प्रभु महावीर कहते हैं कि मोह, तृष्णा, ममत्व को जितोगे तो दुख से मुक्त होकर सुखी बनोगे। यह तृष्णा द्रौपदी के चीर की तरह अनन्त बढ़ती है। यह मनुष्य के लिए अंधकार और कभी न भरनेवाला गड्ढा है। संसार में चार गड्ढे बताए हैं जो कभी नहीं भरते- पेट, समुद्र, शमशान और तृष्णा। पहला है पेट, चाहे कितना ही भोजन कर लें पुन: खाली होकर भूख लग जाती है। दूसरा समुद्र में कितनी ही नदियां समा जाए वह भरता नहीं।
तीसरा शमशान में कितनों को ही जलाया जाता है लेकिन फिर भी नहीं भरता। चौथा है सबसे खतरनाक तृष्णा का गड्ढा। इसकी जितनी पूर्ति करते हैं और अधिक बढ़ती जाती है। एक इच्छा पूरी करने पर दूसरी इच्छा जाग जाती है। तन की तृष्णा तनिक है मन की तृष्णा को पर्वत जितना धन दे दें तो भी शांत नहीं होती। मनुष्य परिग्रह करने के लिए विभिन्न कलाएं सीख दिन-रात मेहनत व दौड़धूप करता है लेकिन तृष्णा पूरी नहीं होती।
महापुरुष कहते हैं तृष्णा के वशीभूत हो जीवन न गंवाएं, तृष्णा पर विजय प्राप्त करें। संसार की भौतिक वस्तुओं की जितनी आवश्यकता है उपयोग करके छोड़ दें, उनसे लगाव न रखें। आत्मा की मुक्ति में तृष्णा ही बाधक है। धन बढ़ता है तो तृष्णा और अधिक होती है। पैसे से परमेश्वर नहीं खरीद सकते लेकिन परमेश्वर से पैसा खरीद सकते हैं।
परिग्रह ही मन के विकार भावों को पल्लवित करता है। परिग्रह की पुत्री है तृष्णा जिसका नाम है ला-ला यानी सबको मैं ही बटोर लंू। नौका में ज्यादा भार भरोगे तो डूब जाएगी। तृष्णा छोड़ संतोष प्राप्त करेंगे तो जीवन धन्य और सफल होगा। धर्मसभा में किरणदेवी कोठारी के सातवें मासखमण २४ उपवास के प्रत्यखान हुए।
धर्मस्थल पर साध्वीवंृद के सानिध्य में तीनदिवसीय आत्मध्यान साधना शिविर की शुरुआत हुई। शिविर का संचालन आचार्य शिवमुनि से प्रशिक्षण प्राप्त कान्ता पारख, पूना से पधारी।
उन्होंने शिविर के बारे में शिविर की जानकारी दी और भेद-विज्ञान, वीतराग, सामायिक, शरीर को स्वस्थ बनाए रखने आदि का बेसिक प्रशिक्षण दिया। शिविर में बड़ी संख्या में लोगों ने प्रशिक्षण लिया। २६ व २७ सितम्बर को शिविर में आत्मा से परमात्मा बनने की कला व गम्भीर साधना का व्यावहारिक प्रशिक्षण दिया जाएगा।