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पदार्थों में आसक्त आदमी भूल जाता है धर्म: आचार्यश्री महाश्रमण

पदार्थों में आसक्त आदमी भूल जाता है धर्म: आचार्यश्री महाश्रमण

कुम्बलगोडु, बेंगलुरु (कर्नाटक): बेंगलुरु के सुहावने मौसम में जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें अनुशास्ता, भगवान महावीर के प्रतिनिधि, अहिंसा यात्रा के प्रणेता, प्रभावी प्रवचनकार आचार्यश्री महाश्रमणजी की अमृतवाणी का रसपान करना और श्रद्धालुओं को और अधिक आनंद की अनुभूति प्रदान करने वाला है। तभी तो दिन-प्रतिदिन देश के विभिन्न राज्यों से श्रद्धालुओं का निरंतर आगमन हो रहा है और लोग सुहावने का मौसम में आचार्यश्री की अमृतवाणी का रसपान कर रहे हैं। 

मंगलवार को ‘महाश्रमण समवसरण’ में उपस्थित श्रद्धालुओं को आचार्यश्री ने ‘सम्बोधि’ के माध्यम से पावन सम्बोध प्रदान करते हुए कहा कि आदमी पदार्थों के जगत में जीता है। विषयों का सेवन भी करता है। शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श-ये पांच विषय है। इन विषयों का मनुष्य आसेवन करता है और विषयों के आसपास रहता है तो उसके प्रति मनुष्य के मन में आसक्ति, अनुरक्ति की भावना हो सकती है।

आसक्ति हो जाती है तो आदमी कोई चीज देख ले और वह उसके पास नहीं होती, तो मन में उसे पाने की अभिलाषा बढ़ जाती है। पदार्थों के इतने विज्ञापन आते हैं और विज्ञापनों से आदमी आकृष्ट हो जाता है और उसे प्राप्त करने का प्रयास करता है। नशीले पदार्थों का विज्ञापन भी होता है और उस पर अंकित वैधानिक चेतावनी के बाद लोग आसक्तिवश उसका आसेवन करते हैं। 

पदार्थों व विषयों में आसक्त आदमी उसका उत्पादन करने और उसे प्राप्त करने का प्रयास करता है। यदि उसे वह पदार्थ प्राप्त नहीं होता तो वह दुःखी भी हो सकता है। जब आदमी को वह पदार्थ प्राप्त हो जाता है तो आदमी उसका भोग करता है। वह उन पदार्थों का जितना भोग करता है, उसकी आसक्ति बढ़ती जाती है। वह यत्नापूर्वक उसकी सुरक्षा करता है।

आदमी उसका जितना उपभोग करता है, उसकी आसक्ति बढ़ती जाती है और फिर प्राप्ति का प्रयास आरम्भ हो जाता है। मानों एक चक्र-सा आरम्भ हो जाता है। धन, विषय और पदार्थों में अनुरक्त आदमी अपनी आसक्ति के कारण कई बार धर्म को भी छोड़ देता है। धर्म को छोड़कर वह विषयों की अनुरक्ति के कारण विषयों के उत्पादन, प्राप्ति, भोग, सुरक्षा और फिर अति अनुरक्ति के चक्र में फंस जाता है।

इसलिए आदमी को अनुरक्ति की भावना से निकल विरक्ति की आगे बढ़ने का प्रयास करना चाहिए। साधना के द्वारा मोह को क्षीण करने का प्रयास करना चाहिए। 

आचार्यश्री ने स्वरचित ग्रन्थ ‘महात्मा महाप्रज्ञ’ के माध्यम से बालक नथमल और उनकी माता बालू के दीक्षा की अर्ज और भादासर में पूज्य कालूगणी द्वारा दोनों को माघ शुक्ला दसमी को दीक्षा देने का आदेश देने के घटना प्रसंगों का रोचकपूर्ण ढंग से वर्णन किया।

आचार्यश्री के मंगल प्रवचन के पश्चात् नित्य की भांति अनेक-अनेक तपस्वियों ने आचार्यश्री से अपनी-अपनी तपस्याओं का प्रत्याख्यान किया। श्री इंदरचंद धोका ने आचार्यश्री 27 (मासखमण) की तपस्या का प्रत्याख्यान किया। 

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