चेन्नई. साहुकारपेट स्थित राजेन्द्र भवन में विराजित मुनि संयमरत्न विजय ने कस्तूरी-प्रकरण के भाव-प्रक्रम का वर्णन करते हुए कहा बिना भाव के किया गया कोई भी अनुष्ठान शुभ फल नहीं देता। हमारे भाव नि:शल्य-निर्दोष होने चाहिए। निर्दोष या निर्मल भावों से ही आत्म-कल्याण होता है।
सद्भावना से सद्गति व दुर्भावना से दुर्गति होती है। बिना भाव से दिया गया दान व्यक्ति के लिए दुखदाई होता है, बिना भाव के किया गया शील का पालन कष्टदायी होता है। बिना भाव से किया गया तप मात्र शरीर को सुखाने जैसा ही होता है अत: जो भी क्रिया हम करें भाव के साथ करें।
जिसके भीतर सद्भावना नहीं होती वह सोचता है कि दान देने से धन की हानि होगी, शीलपालन से भोग की सामग्री नष्ट हो जाएगी, तप करने से क्लेश होगा, पढऩे से कंठ सूखने लगेंगे, नमस्कार करने से मानहानि होगी, व्रत धारण करने से दु:ख होगा, लेकिन बुद्धिमान व्यक्ति सद्भावना के साथ सभी सत्कर्म करता रहता है।
जिस प्रकार जल से सरोवर, सुगंध से कमल, चंद्रमा से रात्रि, सूर्य से दिन, पुत्र से कुल तथा पति से स्त्री शोभायमान होती है, उसी प्रकार भावपूर्वक की गई क्रियाएं भी पुण्य को बढ़ाती हैं जिससे हमारे जीवन की शोभा बढ़ जाती है।
भावना भवनाशिनी होती है, जो हमारे अनंत भवों को समाप्त कर देती है। भाव विशुद्धि के लिए सदा भक्ति-भावपूर्वक, गम्भीर अर्थ वाले और सार्थक स्तुति, स्तवन आदि आत्मोपदेशक पदों का स्वाध्याय करना चाहिए।