किलपाॅक में विराजित आचार्य तीर्थ भद्रसूरिश्वर ने कहा नवपद में अरिहन्त की आराधना सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। सिद्ध पद को पहले नमस्कार होना चाहिए लेकिन अरिहन्त भगवान का उपकार सबसे ज्यादा है, वे सिद्ध भगवान को बताने वाले मार्गदर्शक है। वे मुक्ति का सच्चा मार्ग दिखाने वाले हैं।
अरिहन्त परमात्मा सिद्ध भगवान का स्वरूप बताने वाले हैं। उपकार की दृष्टि से अरिहन्त परमात्मा सबसे ऊपर है। उनके प्रति अनंत श्रद्धा पैदा होनी चाहिए।
उन्होंने कहा हकीकत में, व्यवहार में आप दर्शन पूजन की बात करते है। अरिहन्त परमात्मा अनंत शक्ति व पुण्य के मालिक है। वे सर्वसम्पन्न है। उन्होंने कहा चक्रवर्ती पद, राजा महाराजा की पदवी उनको ही मिलती है जिन्होंने अरिहन्त परमात्मा की परोक्ष या अपरोक्ष आराधना की है। जीवन की अनुकुलता अरिहन्त की भक्ति का ही फल है।
संसार के सब पुण्यों के मुख्य हेतु अरिहन्त परमात्मा है। हम उनके प्रति श्रद्धा की कसौटी पर कितना खरा उतरते हैं यह हम पर निर्भर करता है। उनके उपकार देखने की दृष्टि चाहिए। वे सकल सुख की परम्परा के हेतु है। उनकी अनन्य भक्ति होनी चाहिए। उनकी भक्ति से जो पुण्य का सर्जन होता है वह संसार से जल्दी मुक्ति दिला देगा। जब तक मोक्ष की प्राप्ति नहीं होगी तब तक संसार के जन्म मरण चक्र से छुटकारा नहीं मिल पाएगा।
उन्होंने कहा भक्त और भगवान में भक्त जब भक्ति में आगे निकल जाता है तब दोनों एक हो जाते हैं। भक्त स्वयं भगवान बन जाता है। अरिहन्त भगवान की आज्ञा है कि किसी जीव की हिंसा नहीं करनी चाहिए, सब जीवों की रक्षा करनी चाहिए।
ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहिए जिसमें अनंत जीवों की हिंसा होती हो। अरिहन्त परमात्मा ने राग, द्वेष, काम, क्रोध, माया, लोभ को जीता है। वे क्यों असत्य बोलेंगे। नमो अरिहंताणं में नमो पहले लिखा गया क्योंकि उनके प्रति नम्रता होनी चाहिए। आपका हृदय नम्र होगा तब ही अरिहन्त उपकार कर पाएंगे।
उन्होंने कहा संसार में सब पदार्थों में काल चक्र चलता है। इस जगत में एक चीज ऐसी है जिसके ऊपर काल का कोई प्रभाव नहीं है वह है सिद्ध पद। सिद्ध भगवान अनंत काल तक वही स्वरूप व स्थान में रहेंगे।
जैसे अरिहन्त मार्गदर्शक हैं वैसे ही सिद्ध परमात्मा अविनाशिता का बोध कराते हैं। संसार कोई न कोई उपाधि से भरा है। जीवन में जन्म, मरण, वृद्धावस्था की उपाधि है। सिद्ध परमात्मा एक ही है, जिनकी कोई उपाधि नहीं है यानी सिद्ध पद की प्राप्ति।
उन्होंने कहा सिद्धि व मुक्ति में सिद्धि उच्च है। सिद्ध होना यानी आत्मा के गुणों को सिद्ध करना। मुक्ति यानी कर्म से मुक्ति पाना ही मुक्ति है। हमें मुक्ति का लक्ष्य नहीं रखना चाहिए। अनंत ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप को प्राप्त करना मुख्य लक्ष्य होना चाहिए। आत्मा के गुणों को प्राप्त करना ही लक्ष्य नहीं होना चाहिए, इसके लिए साधना करनी चाहिए।
कल प्रवचन के दौरान सर्वोदया अनाथाश्रम की 125 बालिकाओं ने आचार्य भगवंत के दर्शन कर मंगलाचरण प्राप्त किया। सर्वोदया के बच्चे जैन धर्म का पालन करते हैं और उन्होंने आचार्य व सकल संघ के समक्ष नवकार मंत्र, गुरु वंदन, लोगस्स, नमुत्थुणं आदि सूत्रों का सामूहिक उच्चारण किया।
आचार्य ने आशीर्वाद देते हुए कहा कि नवकार महम॔त्र की प्राप्ति बड़े पुण्य से मिलती है। दिनचर्या में सुबह 8.30 बजे, मध्यान्ह 12.30 बजे व सायं 7.30 बजे 12-12 नवकार मंत्र गिनने की प्रेरणा दी। उन्होंने कहा इससे अध्यात्म शक्ति पैदा होगी। आत्मा को सद्गति प्राप्त होगी। नवकार महामंत्र विश्व प्रसिद्ध व महा प्रभावशाली म॔त्र है। सब बालिकाओं ने जीवन भर के लिए मांसाहार भोजन न करने की धारणा ली।