किलपाॅक में विराजित आचार्य तीर्थ भद्रसूरिश्वर की निश्रा में नवपद ओली की आराधना शुरू हुई। आचार्य ने बताया कि चैत्र मास की ओली की आराधना भरत क्षैत्र में ही नहीं बल्कि देवलोक में सम्यक दृष्टि रखने वाले देव भी करते हैं।
नवपद की शाश्वत ओली एक साल में दो बार आती है। यह उत्कृष्ट आत्माओं की भक्ति की आराधना है। इसमें देव तत्व, गुरु तत्व और धर्म तत्व की आराधना समाहित है। लौकिक में नवरात्रि का पर्व है, उनके लिए भी महत्वपूर्ण है।
उन्होंने कहा धर्म चार प्रकार के होते हैं दान, शील, तप और भाव। इनमें भाव धर्म सर्वश्रेष्ठ है। भावपूर्वक किया हुआ दान, शील, तप पूर्ण फलदायी होता है। तप के साथ कर्म निर्जरा का भाव होने पर सम्यक तप होता है।
उन्होंने कहा ईहलोक या परलोक के आशय से की गई क्रिया शुद्ध व शुभ नहीं है। शुभ व शुद्ध आशय से किए हुए धर्म से पुण्य का बंध होगा। वह पुण्य मोक्ष के दरवाजे तक आपके साथ चलेगा।
उन्होंने कहा जब तक मोक्ष नहीं पहुंचेंगे, पुण्य का संचय जरूरी है। भाव की उत्पत्ति हृदय से होती है लेकिन शुभ भाव की उत्पत्ति निर्मल, स्थिर व पवित्र मन से होती है। कर्म की निर्जरा, क्रिया से नहीं शुभ भाव से पैदा होती है। मनुष्य गति में अधिकतम छः महीने के उपवास करने की आज्ञा है। देवलोक में 33000 वर्ष में एक बार भूख लगती है लेकिन भाव नहीं होने के कारण वे तपस्वी नहीं कहलाते।
उन्होंने कहा मन को जैसे ढालेंगे, जोड़ेंगे या आलंबन लेंगे वैसे ही भाव मन में पैदा होंगे। नवपद की आराधना उत्तम है क्योंकि इसमें पंच परमेष्ठी और गुरु समाहित है। अरिहन्त भगवान नवपद का केन्द्र है, सिद्ध चक्र है।
उन्होंने कहा अरिहन्त भगवान के साथ आत्मा का संबंध माता का है। उस माता का कार्य अध्यात्म देह को जन्म देना है। इस लोक की मां शरीर को जन्म देती है। अरिहन्त परमात्मा के प्रति प्रीति, भक्ति, बहुमान व समर्पण की भावना होने से ही यह संबंध बनता है। मां तो करुणामयी है, आप उनकी शरण में जाकर सच्चे हृदय से पापों का पश्चाताप कर लो, वे इतने दयालु है कि सब माफ कर देंगे। यदि एक संतान कमजोर भी है तो मां उसका ज्यादा ध्यान रखेगी क्योंकि उसके हृदय में वात्सल्य, प्रेम भरा है।
उन्होंने कहा अरिहन्त परमात्मा के पास दो शक्ति है। यदि आप उनके सेवक या भक्त हो तो उनके अनंत पुण्य के प्रभाव से सम्यक दृष्टि देव आपकी सहायता करेंगे। दूसरी शक्ति परमात्मा अचिंत्य शक्ति युक्त है, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। वे दूर विराजित हैं लेकिन वहीं से वे हमारी आत्मा को पवित्र करने का कार्य करते हैं।
परमात्मा के चार संकल्प है जगत के सब प्राणियों का कल्याण हो, उनमें परोपकार की भावना पैदा हो, सबके दोषों का नाश हो और समग्र लोक के प्राणी सुखी हो। इन चार संकल्पों के कारण उन्हें तीर्थंकर पद की प्राप्ति हुई। उन्होंने कहा मुक्ति या भक्ति की भावना में भक्ति भावना उच्च है। हमें मुक्ति की चिंता नहीं रखनी चाहिए। यदि शुद्ध भक्ति है तो मुक्ति अपने आप मिल जाएगी।