क्रमांक – 8
. *तत्त्व – दर्शन*
*🔹 नवतत्त्वों का क्रम*
*👉 यहां प्रश्न होता है कि नवतत्त्वों में जीव ही सबसे पहले क्यों? इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि सारी घटनाएं जीव के साथ ही घटती हैं। वही ज्ञाता है, शुभ और अशुभ कर्मों का कर्ता, भोक्ता एवं स्वामी है। वही पुद्गलों का उपभोक्ता है। संसार में मोक्ष के लिए भी वही प्रवृत्ति करता है। अतः नवतत्त्वों में प्रधान जीव ही है। इसलिए क्रम में सबसे पहले वही है। चूंकि जीव के हर कार्य में चाहे उसकी गति, स्थिति, उपभोग एवं अवगाहना हो, उन सबमें अजीव उपयोगी होता है, अतः जीव के बाद अजीव का स्थान है। दोनों मिलते हैं तो बन्ध होता है अतः बन्ध तीसरे स्थान पर है। बन्धन शुभ और अशुभ होता है। शुभबन्धन पुण्य और अशुभबन्धन पाप है। अतः बन्धन के बाद पुण्य और पाप का क्रम है। इन शुभ-अशुभ कर्मों को आकर्षित करने वाला तत्त्व आस्रव है। जीव द्वारा कर्मों को रोकना ‘संवर’, अन्दर के कर्मों को निकालना निर्जरा और साधना से जीव का कर्म से पूरी तरह रहित हो जाना मोक्ष हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में इसी क्रम को इस प्रकार स्पष्ट किया गया है-*
*”जीवाजीवा य बंधो य, पुण्यं पावासवो तह।*
*संवरो णिज्जरा मोक्खो, संतेए तहिया नव।।”*
*चूंकि संसारी आत्मा को पुण्य से सुख का वेदन और पाप से दुःख का वेदन होता है, अतः ग्रंथो में पुण्य और पाप का स्थान बन्ध और आस्रव के पहले भी रखा गया है। इसी प्रकार कहीं आस्रव को बन्ध से पहले और कहीं बन्ध के बाद में माना गया है।*
*नवपदार्थ की यह व्यवस्था तालाब के दृष्टान्त से भी समझी जा सकती है – जीव तालाब है और अजीव अतालाब रूप है। तालाब के अन्दर का पानी बन्ध है। पुण्य और पाप तालाब से निकलते हुए साफ और गन्दे पानी के समान है। आस्रव तालाब का नाला है। नाले को रोक देना संवर है। उलीचकर या मोरी (नाली) से निकालना निर्जरा है। खाली तालाब मोक्ष है।
*क्रमशः ………..*
*✒️ लिखने में कोई गलती हुई हो तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं।*
विकास जैन।