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नर से नारायण बनाने का रसायन है धर्म – साध्वी सुधाकंव

नर से नारायण बनाने का रसायन है धर्म – साध्वी सुधाकंव

जय जितेंद्र, कोडमबाक्कम् वड़पलनी श्री जैन संघ के प्रांगण में आज तारीख 21 जुलाई गुरुवार, परम पूज्य सुधाकवर जी मसा के मुखारविंद से:-धर्म और श्रद्धा के द्वारा श्रावक को क्या लाभ मिलता है…? जो श्रावक धर्म करता रहता है वह सांसारिक सुखों से निरस्त हो जाता है वह अणगार सुख में प्रविष्ट हो जाता है! जो भी व्यक्ति किसीको दुर्गति या विप्पत्ति से बचाये उसे धर्म कहते हैं। वस्तु का स्वभाव और धर्म अलग अलग होता है! पानी का स्वभाव निर्मलता, आग का स्वभाव उष्णता होता है! वैसे ही आत्मा का आनंद अहिंसा से है जो उत्कृष्ट धर्म है! धर्म कभी मंगल या अमंगल नहीं होता!

वर वधु के शादी के फेरे पडने हो और वहां पर कोई विपत्ति आ जाए या किसी की मृत्यु हो जाए तो वह कार्य अमंगल हो जाता है लेकिन धर्म क़भी अमंगल नहीं होता ! हमारे 8 कर्म है, अगर आठों कर्म टूट जाए तो हम वीतरागी बन जाएंगे! धर्म से जीवन निखरता है, शाश्वत को प्राप्त करता है, मोक्ष के द्वार खोलता है, डूबते हुए को तिरा देता है! धर्म में कटुता नहीं होती है! पहले मन और दिमाग के कचरे को बाहर फेंको तभी अच्छी बातों का समावेश हो सकता है! तभी वीतराग वाणी और जिनवाणी भी टिकती है! मन ही जीवन में सरलता , आनंदमयी प्रेरणा और जीवन में ऊपर उठने की कला सिखाता है! हमारे जीवन में धन की भी बहुत जरूरत है! हमें जितनी priority धन कमाने में देते है, उतनी ही या उससे ज्यादा priority धर्म को देनी चाहिए!

परम पूज्य सुयशा श्री मसा के मुखारविंद से:-भारतीय संस्कृति में हर किसी भी धर्म में सुख और शांति का विधान होता है! हर धर्म में सुख के बाद दुख और दुख के बाद सुख, यह प्रक्रिया चलती रहती है! लेकिन आनंद के साथ ऐसा कुछ भी नहीं है आनंद वह अवस्था है जो इन से ऊपर उठ जाता है! और वह व्यक्ति ना तो ज्यादा दुखी होता है ना ज्यादा सुखी!

अंग्रेजी में कहावत है,If there is no pain then there is no gain. हमारा सुख दुख का मूल हमारे मन से है और हमारी इंद्रियों पर निर्भर है! रुखा सुखा भोजन कर रहे हैं और उस समय हमें करोड़ की लॉटरी लगी है तो भी हमें वह भोजन स्वादिष्ट लगेगा! स्वादिष्ट भोजन कर रहे हैं लेकिन उस समय कोई अप्रिय समाचार मिले, जैसे इनकम टैक्स की रेड या व्यापार में नुकसान तो वह स्वादिष्ट भोजन भी हमें अच्छा नहीं लगेगा! हमारा मन वस्तु, व्यक्ति और परिस्थिति से निरंतर प्रभावित होते रहता है!

दुख चार प्रकार के होते हैं! पहला है कल्पनाजन्य दुःख:-हम हमारी हैसियत से कम या ज्यादा कल्पना कर सकते हैं! कल्पना में हम सुखी या दुखी भी हो सकते हैं! हर कामकाज के, व्यापार के, शादी की, बारात की, पढ़ाई लिखाई की, इस यात्रा की कल्पना कर सकते हैं! लेकिन हैसियत से ज्यादा कल्पना करके जब अपने आप में धोखा होता है तो मन बहुत दुखी होता है! हमारी जिंदगी में हम जो ना कर पाए उसके आकांक्षा हम अपने बच्चों से करते हैं! लेकिन वे भी अपनी हैसियत से ऊपर कुछ नहीं कर सकते हमें इसका ध्यान रखना चाहिए चाहे वह पढ़ाई लिखाई हो या खेलकूद, बच्चे की हैसियत की एक सीमा होती है!

हमारी कल्पना हमारे लिए दूरदर्शी बनने में सहायक होनी चाहिए दुखदर्दी बनने में नहीं! आज की धर्म सभा में श्रीमान अशोक जी तालेड़ा ने 18 उपवास, श्रीमती सुशीला जी बाफना ने 10 उपवास, एवं श्रीमती प्रकाश बाई लालवानी ने 9 उपवास के प्रत्याख्यान किए। इसी के साथ कई धर्म प्रेमी बंधुओं ने विविध तपस्याओं के प्रत्याख्यान ग्रहण किए।

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