चेन्नई. साहुकारपेट स्थित राजेन्द्र भवन में विराजित संयमरत्न विजय ने कहा ध्यान से ज्ञान की प्राप्ति होती है। ध्यान का फूल खिलता है तो ज्ञान की महक फैलने लगती है। ध्यान का दीपक जलता है तो ज्ञान की उर्जा प्रसारित होती है।
परमात्मा की ओर जाने वाले दो मार्ग है-एक ज्ञान का व दूसरा भक्ति का। जिस व्यक्ति को ज्ञान के आधार पर चलना है उसे ध्यान साधना पड़ता है। भक्ति का अर्थ है पूरी तरह डूबना, मदमस्त होना और ध्यान का अर्थ है-सतत जागरण, स्मरण का बना रहना। सभी ध्यान नहीं साध सकते, कुछ प्रेम से तो कुछ भक्ति से परमात्म तत्व को प्राप्त करते हैं।
ज्ञान का रास्ता कठोर है, प्रेम का रास्ता हरा-भरा, रसनिमग्न है तो ध्यान के मार्ग पर संकल्प-बल ही हमारा संबल है लेकिन भक्ति के मार्ग पर समर्पण है, संकल्प नहीं। भक्ति के रास्ते पर परमात्मा के चरण व उनके हाथ उपलब्ध है।
भक्ति के रास्ते पर संग है, साथ है। भक्ति के रास्ते पर भक्त बेल बनकर परमात्मा रूपी वृक्ष पर लिपट जाता है। साधक साधन के सहारे साधना करते हुए अपने साध्य अर्थात् परमात्मा को प्राप्त कर लेता है।
भक्तामर के चतुर्थ श्लोक का भावार्थ मुनि ने बताते हुए कहा कि भक्त समर्पण भाव से ही परमात्मा की भक्ति कर पाता है। परमात्मा गुणों के सागर हैं, जहां कभी अवगुण टिक नहीं पाते।