नार्थ टाउन में गुरुदेव जयतिलक मुनिजी ने प्रवचन में कहा कि पर्युषण पर्व चल रहे है। धार्मिक दिन अच्छे दिन जल्दी व्यतीत होते है। दुःख के दिन देर से बीतते है संवत्सरी का दिन आये उसके पहले धर्म ध्यान करने में पुरुषार्थ करे । ये दिन प्रमाद के नहीं। कर्म निर्जरा करने के है। कर्म झड़ेंगे तभी आत्मा पाप कर्मों से मुक्त होगी जब आत्मा आठ कर्मों को क्षीण करेगी तभी संसार परिभ्रमण से छुटकारा मिलेगा ।
जैसे घर की सफाई करके बड़ी खुशी मिलती है तब स्वच्छ घर में सांस लेने में आनन्द आता है वैसे ही आत्मा जब कर्मों की धूल से मुक्त होगी तब शाश्वत सुख की अनुभूति होगी। उस समय देवता भी आनन्दित होते है। उस समय देवलोक के देवताओं के भी शुभ कर्मों का आदान होता है। वे अनुमोदना कर कर के अपने सम्यक्त्व को मजबूत करते है।
ये सब जानते है कि कर्मों का फल किस प्रकार भोगना पड़ता है फिर भी व्यक्ति सावधानी नही बरतता। यदि व्यक्ति कामनाओं से ऊपर उठ जाये तो उसे निकाचित कर्मो का बन्ध न होगा और न भोगना पड़ेगा। जो व्यक्ति कर्म में उदय में आने पर समभाव से सहन कर लेता है उसके नये कर्म का बन्ध नही होगा और आया हुआ कर्म झर जायेगा। पर्युषण पर्व कर्मो का हिसाब किताब चुकाने की दिवाली है, नया खाता मत खोलो। यदि हिसाब चुकाने के बाद नया खाता खोलते रहोगे तो मुक्त नहीं हो पाओगे।
वैर कर्म का बंध कभी नहीं करना चाहिए क्योंकि वैर कर्म को शांत करना बहुत मुश्किल होता है। यदि भाग्य में लिखा है भी पुण्यवानी का उदय हो तो माँगने की आवश्यकता नहीं पड़ती। परन्तु भाग्य में न हो तो छीन झपट कर लेने से व्यक्ति उसका सुख नहीं भोग सकता परन्तु फिर भी व्यक्ति अज्ञानता में क्रूर कर्म कर पहले पाप का बंध कर लेता है। ज्ञानीजन कहते है कि जितनी बात बताना आवश्यक हो उतनी ही बतानी चाहिए अन्यथा वेदना होती है। कामना पूर्ति के लिए व्यक्ति इतना चिन्तन करता है क्रूर कर्म भी कर लेता है और फिर आनन्दित होता है परन्तु ये आनन्द तो क्षण भर का होता है। क्योंकि कामनाओं का अन्त नहीं है।