चेन्नई. श्री वर्धमान श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन संघ मईलापुर के तत्वावधान में १६ दिसम्बर रविवार को आचार्य आनंदऋषि व तपस्वीराज गणेशीलाल का दीक्षा दिवस समारोह का आयोजन उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि व मुनि तीर्थेशऋषि के सान्निध्य में मईलापुर में लज चर्च रोड स्थित कामधेनु कल्याण महल (पुराना कामधेनु थियेटर) में आयोजित आयोजित किया गया।
उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि ने कहा कि महापुरुषों की जयंती और दीक्षा दिवस इसलिए मनाई जाती है कि उनके चरित्र, आस्था और सोच के साथ हमारा कोई रिश्ता बन जाएगा। उनके नाम के साथ बना हुआ रिश्ता उनकी सोच के साथ जुड़ जाए।
समाज को जाग्रत करने के लिए तपस्वीराज गणेशीलाल ने यह नियम लगाया था कि जो बिना खादी और बिना मुहपत्ती के धर्मसभा में कोई व्यक्ति बैठ नहीं सकता इतना कठोर नियम उन्होंने इस समाज की गुलामी को तोडऩे व इसे भटकने से रोकने के लिए लिए।
तपस्वीराज गणेशलालजी महाराज ने प्रण किया कि जिस घर में सुदेव, सुगुरु और सुधर्म के प्रति आस्था होगी वहीं से आहार पानी लंूगा। जिस घर में मिथ्यात्व होगा, जिस घर में परमात्मा महावीर के शासन और गुरु के प्रति एकनिष्ठा नहीं है उस घर का जल-अन्न नहीं लंूगा। कई बार उपवास के पारणे में ऐसा घर नहीं मिलता था तो वे पुन: तपस्या शुरू कर देते थे। इतिहास में ऐसा महापुरुष आपको नहीं मिलेगा जिसने अपने आहार पानी पर भी शर्त लगाई हो। उनकी ऐसी निष्ठा समाज को जगाने की प्रतीज्ञा थी। महावीर के शासन में जिसने दीक्षा ली वह शेर ही बना है। ऐसे दोनों महापुरुष आचार्य आनंदऋषि व तपस्वीराज गणेशीलाल जिनकी 105वीं दीक्षा जयंती आज मना रहे हैं। दोनों का जिनशासन में जन्म एक ही दिन हुआ है।
दोनों ने ही अपनी इज्जत दांव पर लगा दी थी- एक ने बलिप्रथा रोकने के लिए जहां सिकन्द्राबाद में खून की नदियां बहती थी उन्हें रुकवाई और दूसरे ने संगठन के लिए अपना जीवन लगा दिया। एक ने ज्ञानशालाएं खोली और दूसरे ने गौशालाएं खोली जो एक थी पशुओं को संभालने के लिए दूसरे को आदमियों को संभालने के लिए।
धर्म से हीन जो इंसान होता है वह पशु के समान होता है। पाश्वीय भावना से मुक्त होना हो तो धर्म ही तुझे बाहर ला सकता है दूसरा कोई नहीं। जो मां-बाप अपने बच्चों को धार्मिक संस्कार नहीं देते हैं, वे अपने बच्चे को इंसान नहीं बनाना चाहते। जो अपने बच्चों को जिनशासन के संस्कारों से संपन्न नहीं करते हैं वे उन्हें पशु बनाना चाहते हैं। बिना धर्म का कोई भी इंसान नहीं बन सकता। यदि पुतलीबाई अपने बेटे मोहन को विदेश भेजने से पहले संतों के पास नहीं ले जाती तो देश को आजादी दिलानेवाला अहिंसा का पुजारी महात्मा गांधी कहां से मिल पाता। जो मां-बाप अपने बच्चों को ऐसा सुरक्षा कवच नहीं देना चाहते हैं वे उनका बुरा करनेवाले होते हैं।
हृदय में समाज के लिए काम करने का जुनून हो तो काम करने के क्षेत्रों की कमी नहीं है। आज भी स्थानकवासी समाज में ज्ञान, ध्यान है तो उसका श्रेय श्री आनन्दऋषिजी महाराज को है। उन्होंने ज्ञानध्यान के पाठ्यक्रम बनाए और गांव-गांव में पाठशालाएं खोली, धर्मशास्त्रों को सुव्यवस्थित कर पढ़ाने के लिए पंडितों को तैयार किया। जिनशासन को दुनिया में पहुंचाने के लिए उन्होंने अपना जीवन कुर्बान कर दिया।
हमें संघ और समाज को अपनी जिंदगी देनी चाहिए न कि इनके उपयोग के बल पर अपनी जिंदगी बनानी चाहिए। ऐसे महापुरुषों की दीक्षा जयंती आज हम मना रहे हैं जिन्होंने समाज को अपने कंधों पर उठाया। जिन-जिन महापुरुषों को आप मानते हैं उनके जीवन का एक ही मंत्र रहा है कि उन्होंने अपना बोझ समाज पर कभी नहीं आने दिया और स्वयं समाज का बोझ उठाने में वे कभी पीछे नहीं रहे। वे आचार्य पदों पर रहते हुए भी स्वयं अपने कार्य करते थे, अकेले चलते थे, उनकी सेवा में कोई नौकर नहीं थे। ऐसा जीवन उन्होंने जीया कि आनेवाले समय में लोग भरोसा ही नहीं करेंगे। यंू ही नहीं बनते ये चरण पूजनीय, इसके लिए आचरण की आग में से गुजरना पड़ता है तो ही चरण वंदनीय बनते हैं।
मांगने से भी श्रद्ध मिल जाती तो हर भिखारी भगवान बन जाता। श्रद्धा तो तभी मिलती है जब तुम विश्वास पात्र बनो। इसके लिए पाखंड को छोड़कर पारदर्शी जीवन जीना ही पड़ता है, वे महापुरुष जिस राह पर चले कि वह राह भी राजमार्ग बन गया। वे जब गोशालाएं खुलवा रहे थे उस समय समाज के ही साधु-संत उनके विरोधी बने। वे खादी का भंडार साथ लेकर चलते थे, लोगों ने उनके विरुद्ध क्या नहीं बोला और लिखा लेकिन उनकी अपनी सोच कि उस भंडार में से एक टुकड़ा भी अपने लिए नहीं लिया।
इन दो महापुरुषों के नाम यदि स्थानकवासी समाज में से निकाल दिया जाए तो यह समाज दक्षिण भारत में नजर नहीं आएगा। उन्होंने अपना जीवन लगाया दिया, संघ की व्यवस्था, लोगों की आस्था और चरित्र बनाने में। आज हम सभी को चिंतन करना चाहिए कि मां-बाप बने हो तो अपने बच्चों को इंसान बनने का अवसर दो, तभी अपका बुढ़ापा सुरक्षित रहेगा, नहीं तो पता नहीं कहां ठोकर खाओगे। आज बच्चा तुम्हारी मानता है तो उसे धर्मध्यान में लगाएं नहीं तो कल वह तुम्हारी माननेवाला नहीं है। सदैव धर्माराधना अकेले ही नहीं बल्कि अपने अपने परिवार के साथ करें।
दो ही महापुरुषों की १०५वीं दीक्षा जयंती है, दोनों ही जिनशासन में एक साथ आए। एक तेरह साल की उम्र में जबकी दूसरे पैंतीस साल की उम्र में आए। लेकिन दोनों ने ही जिनशासन को उस ऊंचाई पर पहुंचाया। जो कार्य वे अपने चरित्र, तप, संयम, आस्था के बल पर वे अकेले कर गए हम सब मिलकर भी कर लें तो अभिनंदन है। आज के माहौल में अपने घर के बच्चों को धर्म से जोड़े रखना है तो कुछ नए तरीके से सोचना होगा, नए रास्तों को बनाना ही पड़ेगा। आचार्य भगवंत आनन्दऋषि महाराज ने श्रावक की परिभाषा करते हुए कहा है कि जो श्रद्धा, विवेक और कर्तव्य तीनों का जिसके जीवन में संगम है वही श्रावक कहलाता है।
उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषिजी के सानिध्य में मोहनलाल चोरडिय़ा, मैलापुर को ”सुश्रावक रत्नÓÓ के अलंकरण से सम्मानित किया गया।
कार्यक्रम में अनेक स्थानों से गणमान्य लोगों समेत श्रद्धालु हिस्सा लिया। समारोह में अध्यक्ष शांतिलाल चोरडिया, अजीत चोरडिय़ा, इंदरचंद कांकलिया, दिलीप रांका, महावीर चोरडिया, धरमचंद-चंद्रप्रकाश चोरडिया, हीरालाल रांका, सुमेरमल वैद, प्रवेश बम्ब, राहुल खाबिया, एसवीएस जैन संघ के सचिव विमल खाबिया, शंातिलाल सिंघवी, धर्मीचंद सिंघवी व संजय सेठिया समारोह में उपस्थित रहे।