जैन संत डाक्टर राजेन्द्र मुनि जी ने आदिनाथ भगवान की स्तुति स्वरूप भक्तामर स्तोत्र की व्याख्या करते हुए कहा कि इन्सान अपने मन मे हमेशा ही शुभ को पाने की अनंत लालसा जन्म से ही चाहता है पर जीवन यात्रा इतनी अनिशचय के दौर मे गुजरती रहती है। एक शवांस के बाद दूसरे शवांस की भी गारंटी नहीं दे सकता फिर भी मन मे तरह तरह की कल्पनाएं संजोये चला जाता है! यही जीवन का तनाव है! जो आज मौजूद है उसको तो नहीं देखता अपितु जो नजर नहीं आता उस कल के चिंतन मे समय गुजार देता है परिणाम न तो आज का आनन्द लें पाता है और न अतीत के प्राप्त सुखों का स्मरण कर पाता है!
उसकी सारी शक्तियां भविष्य के लिए बर्बाद हो जाती है! आदिनाथ भगवान के प्रबल पुण्य के उदय से उनका एक एक क्षण सुखद होता है उनके अनेक गुणों से निर्मित उनका आभा मण्डल अत्यधिक ओज तेज को लिए रहता है जो भी आत्मा उस आभा मण्डल जिसको आज की भाषा मे ओरा कहा जाता है की सीमा मे प्रवेश करता है। वह मानसिक वाचिक कायिक कष्ट का निवारण कर अनंत पुण्य का धर्म का भागीदार बनता है! सभा मे साहित्यकार श्री सुरेन्द्र मुनि जी द्वारा भक्तामर स्वाध्याय के साथ जीवन के सद गुणों का वर्णन विवेचन किया गया जिसे पाकर जीवन मे कष्ट दूर होकर सुख का संचार होता है ईस हेतू सदा प्रयत्न पुरषार्थ आवश्यक है! धर्म तत्व ही एक ऐसा तत्व है जो हमें जीवन का मार्ग प्रशस्त करता है! महामंत्री उमेश जैन द्वारा स्वागत व सूचनाएं प्रदान की गई।