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धर्म वही सर्वश्रेष्ठ है, जहां जयणा हो- आचार्यश्री उदयप्रभ सूरीजी

धर्म वही सर्वश्रेष्ठ है, जहां जयणा हो- आचार्यश्री उदयप्रभ सूरीजी

किलपाॅक जैन संघ में विराजित योगनिष्ठ आचार्य केसरसूरी समुदाय के वर्तमान गच्छाधिपति आचार्यश्री उदयप्रभ सूरीश्वरजी म.सा. ने प्रवचन में कहा कि जिस तरह फूल के अंदर कमल का फूल श्रेष्ठ है, ज्योतिष मंडल के अंदर सूर्य ग्रह श्रेष्ठ है, इसी तरह पर्वों की तेजस्विता के अंदर दीपावली त्यौहार श्रेष्ठ है। जैन शासन के अंदर नवकार आराधना के लिए उपधान तप को बताया गया है। जो त्याग के प्रेमी हो, विरति धर्म के चाहक हो, परमात्मा के प्रति अत्यंत श्रद्धांवित हो उन्हें ही उपधान तप का अधिकार दिया गया है। जिन्हें नवकार से आगे कुछ नहीं आता, क्रिया भी नहीं आती, वे भी उपधान तप कर सकते हैं। आराधना में सहनशक्ति आवश्यक है। कभी-कभी हम जीवन में आभास और भ्रांति में जीते हैं। हमें कोई भी वस्तु को कठिन नहीं समझना चाहिए। कठिन तभी लगता है, जब हम उसे कठिन समझते हैं। दिमाग की सोच मन की शक्ति का विकास करती है। पुरूषार्थ ज्यादा हो, पुण्य कम हो तो भी अच्छे टारगेट को टच कर सकता है।

पुरुषार्थ में पुण्य को अर्जित करने की ताकत है। मन में इच्छा शक्ति और दृढ़ धारणा होनी चाहिए। मन की जीत जीवन की संजीवनी होती है। संजीवनी यानी तुरंत लाभ देने वाली औषध। जीवन में शुभ कार्य के लिए हार नहीं मानना चाहिए। कभी कभार प्रमाद, आलस्य, अपेक्षा, विलासिता हमारी शक्ति को दबा देती है। जीवन में असातावेदनीय कर्म उदय होने पर शरीर की सहायता नहीं रहती। सातावेदनीय कर्म को बढ़ाने के लिए दूसरों को पीड़ा नहीं देना और उसके बारे में सोचना भी नहीं। इसका उपाय पौषध बताया गया है, जिसमें छःकाय जीवन की रक्षा होती है।

आचार्यश्री ने कहा कि धर्म वही सर्वश्रेष्ठ है, जहां जयणा हो। कहा गया है जयणा जनस्य जननि। जो धर्म को थोड़ा बहुत जानता है, उसकी माता जयणा है। जयणा के बिना का धर्म बिना शक्कर की मिठाई जैसा है। पौषध परमात्मा को स्पर्श करने का ध्यान योग है। उन्होंने कहा ज्ञान का दीपक, विवेक का दीपक, विरति धर्म का दीपक और परोपकार का दीपक इस दिवाली पर जलाना है। परमात्मा ने अंतिम श्वासोश्वास तक देशना दी, यह अद्भुत परोपकार का उदाहरण है। अधिक से अधिक परोपकार महावीर स्वामी का सूत्र है। तीर्थंकर स्वरूप दशा में रहकर जनकल्याण करते हैं।

उन्होंने कहा नासमझ को समझा सकते हैं, पर समझ वाले को समझाना बहुत कठिन है। हमारा मन बंदर जैसा अत्यंत चंचल है। जैन धर्म का मुख्य आधार त्याग और तप ही है। जिसकी शक्ति नहीं है तो उसे करने का फोर्स नहीं करते हैं। पंथ, संप्रदाय भले ही कितने हो गए, धर्म का मूल सबका एक ही है। जैसे साधु के पांच महाव्रत, साधु घर से बाहर ही रहते हैं, चलने में पैदल चलने का ही प्रावधान है, भिक्षा लेकर ही भोजन करते हैं, केशलोचन अनिवार्य है आदि। बेसिक सिस्टम सब पंथों, संप्रदायों में समान है। पंथ, संप्रदाय के कारण कभी धर्म पर अंगुली नहीं उठानी चाहिए।

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