नार्थ टाउन में पुज्य गुरुदेव जयतिलक मुनिजी ने प्रवचन में फरमाया कि जिनवाणी कहती है श्रावक संसारिक लौकिक अपेक्षा से अमीर-गरीब दो प्रकार के होते है। जिसका आधार व्यापार है ।
व्यापार में सफल अमीरी को व्यापार में सफलता और असफल गरीबी को प्राप्त करता है पुण्यवानी से ही लौकिक कार्य में सफल होते है। संसार के सारे उत्तम पदार्थ पुण्यवाणी से प्राप्त होते हैं। पुण्यवाणी बढ़ाने के लिए जीव को चार बातों का ध्यान रखना चाहिए। 1) नास्तिक की संगत मत करो, क्योंकि जो श्रद्धा से रहित है भगवान व जिनवाणी को नहीं मानता वह न स्वयं सफल होता है और न वह दूसरो को
पाप में रमण करता है। वो दूसरो को भी धर्म से दूर ले जाकर व्यसनी बना पुण्यवाणी का नाश कर देता है। ऐसा नास्तिक बंजर भूमि के समान होता है। नास्तिक मिथ्यात्वी होता है । मिथ्या तत्व सभी पापो का पाप है। ज्ञानीजन कहते है कि पुण्यवाणी यदि बढ़ानी है तो नास्तिक से दूर रहो श्रद्धा से ही धर्म फल प्राप्त होता है। जैसे आंगन में लगे पौधे से वृक्ष बन गया और उसकी जड़ यदि सुरक्षित है तो उसकी सार संभाल न करने पर भी वह वृक्ष नष्ट नही होता है। वैसे ही धर्म का वृक्ष होता है जड़ है। यदि धर्म रूपी वृक्ष की जड़ सम्यक्त्व है। यदि सम्यक्तव सुरक्षित है तो समय मिलने पर धर्म ध्यान करने से वृक्ष पुण: हरा भरा हो जायेगा। और पुण्यवाणी से फल लगने लगता है। ये फूल तीन प्रकार के है 1- मनुष्य, देव, मोक्ष। धर्म रूपी वृक्ष में करणी के आधार पर फल मिलता है।
नास्तिक की संगति करने पर सम्यक्त्व रूपी जड़ नष्ट हो जाती है। और जीव की दुगर्ति हो जाती है नरक व तिर्यचं गति का द्वारा खुल जाता है। 2) बोल है अनीति से धन उपार्जन नही करना। ऐसा करने से भी पुण्यवाणी घटती है और पतन हो जाता है। अनीति से धन उपार्जन करने पर ठाठ बाट थोड़े दिन ही रहता है। भगवान कहते है न्याय नीति से धन उपार्जन करने से आप और आपका परिवार अच्छा रहेगा और उनका भव सुरक्षित रहेगा। बाजर में कितनी ही मंदी आ जाये अगर न्याय नीति से व्यापार करता है
उसका व्यापार सफलता को प्राप्त करता है 3) पर स्त्री गमन करने से पुण्यवाणी धटती है। श्रावक स्व स्त्री को मर्यादा और परस्त्री का प्याग करे। क्योंकि दूसरे के घर बरबाद करने से पाप कर्म का बंधन होता है।
ये भी एक व्यसन है। (4) निंदा नही करना। ये भी पाप है। निंदा सुनने में सबको बड़ा आनन्द आता है। निंदा व्यक्ति चार कान से सुनता है। भगवान कहते है निंदा करना व सुनना दोनो पाप है। स्वयं की निंदा करने से पाप की घृणा होगी और पाप घटेंगे। पाप घटने से पुण्यवाणी बढ़ती है दुसरों की प्रसंशा करना। जितना ज्यादा गुणो की प्रसंशा करोगे उतना ज्यादा संसार में गुणो की वृद्धि होगी। इसलिए अच्छे धर्म की प्रशंसा करो जिससे समाज में घर में धर्म की वृद्धि होगी।
यदि काम भोग की प्रशंसा करोगे तो संसार में काम भोग बढ़ेगा। होटल की, रूप की प्रशंसा करने पर बच्चे उसी ओर आकर्षित होते है यदि बच्चों के सामने धर्म स्थल की, तपस्वी की प्रसंशा करोगे तो बच्चे उस ओर आकर्षित होते हैं। सदैव गुणों को देखो। धर्म की वृद्धि पुरुषार्थ से होती है। मनुष्य ही धर्म करने में समर्थ है इसलिए मनुष्य जन्म अनमोल है। मनुष्य जन्म पाकर भी यदि प्रमाद में रहे तो मनुष्य जन्म व्यर्थ हो जायेगा। धर्म में पुरुषार्थ करने पर ही मनुष्य जन्म सफल होगा।