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ज्ञान वाणी

धर्म में जिज्ञासा का समाधान होना चाहिए: उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि

धर्म में जिज्ञासा का समाधान होना चाहिए: उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि

चेन्नई. जिस संघ समाज में जिज्ञासा पर पाबंदी हो वह प्रगति के रास्ते पर लंबे समय तक चल नहीं सकता। धर्म में जिज्ञासा का समाधान होना चाहिए।

सोमवार को श्री एमकेएम जैन मेमोरियल, पुरुषावाक्कम में विराजित उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि एवं तीर्थेशऋषि महाराज ने उत्तराध्ययन सूत्र का वाचन कराया। उन्होंने कहा कि निर्वाण कल्याणक की अनुत्तर देशना जीवन की हर समस्या का समाधान देती है। चाहे जैसा माहौल या परिस्थिति रहे। समस्याओं के प्रति बिलकुल स्पष्ट निर्देश मिलता है प्रभु की इस देशना से।

भगवान पाश्र्वनाथ 23वें तीर्थंकर, महावीर 24वें तीर्थंकर हैं। पाश्र्वनाथ ने भगवान महावीर के बारे में सारी बातें बताकर गए थे। इसके बावजूद भी जिस समय महावीर का शासन प्रारंभ हुआ। पाश्र्वनाथ के शासन के साधु-साध्वियों ने उन्हें अपने धर्मगुरु नहीं स्वीकारा। आज के समय में दुनिया में बहुत सारी धारणाएं और लोग हैं तथा विभिन्न परंपराएं हैं। धर्म की सच्चाई को जानें और समझें। केवल अपनी दुकान चलाने वालों का अनुशरण करके उनका व अपना संसार और मिथ्यात्व बढ़ाना है। सिद्धांत अलग है और व्यवस्था अलग बात है। छद्मस्थ रहते हुए सर्वज्ञ का दावा कर लोगों को भरमाना नहीं चाहिए। इस जन्म की प्रसिद्धि कहीं जन्मांतर में काम नहीं आएगी।

केसीश्रमण महावीर के शासन को छोड़कर, आलोचना करके उसमें पुन: दीक्षित होना यह संकेत है कि जिसके शासन में दीक्षा ली है वही तुम्हारा नायक और शासक है। उसमें रहते हुए दूसरों के शासन को मानेंगे तो उसका कल्याण नहीं हो सकता। यह उत्तराध्ययन इसका प्रमाण है।
तीर्थंकर तो सभी को उपलब्ध होते हैं। उनके लिए तो सारे समान हैंं। अपनी श्रद्धा के आधार पर मिथ्या बातें न करें और न स्वीकारें और किसी से झगड़ा न करें। यदि उत्तराध्ययन सूत्र के २३वें अध्याय की आराधना ही कर ली जाए तो वह मिथ्यात्व में पड़े ही नहीं। सभी मंगलभावना रखें कि परमात्मा की कृपा बरसती रहे और धर्म के प्रति मिथ्याधारणाओं से स्वयं भी बचें और दूसरों को भी बचाएं।

महावीर के शासन को स्थापित होने के बाद श्रावस्ति नगरी में विचरण करते हुए केसीश्रमण आते हैं और इंद्रभूति गौतम भी पूरी शिष्य संपदा के साथ आते हैं। अनेक विचाधाराएं चलती है लेकिन समझदार लोग उनमें से समाधान निकालते हैं ऐसा हो तो सभी को सहमति हो सकती है। आज के समय में जैन धर्म में इसकी व्यवस्था और प्रोटोकॉल बनाना बहुत जरूरी है। नहीं तो जिनशासन की यह अनमोल संपदा आपसी झगड़े में बर्बाद हो जाएगी। इंद्रभूति ने देखा कि पाश्र्वनाथ पहले हुए इसलिए उनका कुल ज्येष्ठ है। बड़ों का आदर करने की परंपरा जिस संघ समाज में होती है वह प्रगति पर चलता है। ज्येष्ठता का सम्मान को पैरों तले रौंदने से सफलता के सारे रास्ते बंद हो जाते हैं।

केसीश्रमण ने उनका स्वागत किया और बैठने के लिए पंच आसन दिए और कहते हैं कि अपनी शंकाओं का समाधान जानना चाहता हंू। घर में बड़ों को भी चाहिए कि छोटों का की भावनाओं का सम्मान करें। अन्यथा आपसी समन्वय बहुत मुश्किल होता है। बड़ा यह पूछे कि तुमने जो नया रास्ता सोचा है उसके प्रति मेरे मन में संशय है। अपनी भावना बताते हुए तुम्हारे भावों को जानना चाहता हंू।

परमात्मा का शासन बताता है कि पहले छोटों से पूछना चाहिए। आपके आदर के भाव होंगे तो आदर के भाव ही मिलेंगे। इसकी पहल बड़ों को करनी चाहिए।  इंदभूूति गौतम ने कहा कि दोनों ही तीर्थंकरों ने प्रज्ञापूर्वक धर्म की समीक्षा कर तत्त्व और रहस्य को जाना है। सभी कुछ एक है लेकिन इसे समझनेवाले जिस भाषा में समझेंगे उसी भाषा में तीर्थंकरों ने समझाया है। 22 तीर्थंकरों के पास समझने वाले भी थे और नासमझ भी थे उनके लिए ही यह दो प्रकार की व्यवस्था की गई है।

इंद्रभूति कहते हैं कि दोनों के द्वारा अलग-अलग वेश प्रदान करना लोगों के मन में जिज्ञासा और समाज, संघ और समूह में अनुशासन के लिए यह जरूरी है। अपने मन को भटकाने वाले विचार हमारे शत्रु है, मैंने स्वयं को जीता है। आत्मा रूपी राजा को जीत लिया तो इन्द्रियांरूपी प्रजा स्वत: जीते गए हैं। आज आदमी कितने ही विचारों की बेडिय़ों में जकड़ा हुआ है और मैंने अपने मन की अच्छा लगने की सबसे भयंकर बेड़ी को तोड़ा है। हमारे अन्तर में जहरीली लता है, उसके फल भी जहरीले हैं और लोग उसे खाकर और ज्यादा जहरीले बनते हैं उसे मैंने नष्ट किया है। मैंने संसार के प्रति अपनी कामना और प्यास की लता को जड़ से उखाड़कर फेंका है।

अन्तर की कषाय की आग को बुझाने के लिए परमात्मा के शब्दों की सुयधारा को निरंतर इस पर बरसाता रहता हंू जिससे यह शान्त है। मैंने मन के घोड़ों को धर्मशिक्षा की लगाम है से काबू में रखा है। मैं जानता हंू सही रास्ता क्या है और गलत क्या है। जो तीर्थंकर ने कहा है वहीसही रास्ता है। मैंने परमात्मा की आस्था को स्वीकार किया है। बुढ़ापा और मरण बाढ़ के समान है इससे बचना हो तो धर्म की शरण में रहना है वहां इनका प्रभाव नहीं होता। जीवन में भटकाने के तूफानों की चिंता मत करो स्वयं और स्वयं के संस्कारों को सही रखो। जिसकी नौका में छिद्र हो तो वह बिना तूफान भी डूब जाता है। इस शरीररूपी नौका का मैं ध्यान रखता हंू जिससे यह मुझे डुबोती नहीं है। जिन भावना को पराक्रम का बल प्राप्त नहीं हो वे ओस की बूंद समान नष्ट हो जाती है। केसीश्रमण की सभी समस्याओं का समाधान करके इंद्रभूति गौतम उनकी स्तुति करते हैं।

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