जैनाचार्य श्रीमद् विजय रत्नसेन सुरीश्वरजी म.सा. ने श्री मुनिसव्रत स्वामी नवग्रह जैन मन्दिर कोंडितोप भवन मे आयोजित धर्मसभा को प्रवचन देते हुए जैनाचार्य श्री ने कहा कि मानव जीवन को पाकर के जिसने धर्म पुरुषार्थ में उद्यम नहीं किया हैं, उसका जीवन निष्फल हैं।
मानव जीवन की सच्ची सफलता धर्म और मोक्ष पुरुषार्थ की साधना में ही हैं। मोक्ष साध्य पुरुषार्थ हैं और धर्म उसका साधन हैं।
लोक में धर्म ,अर्थ,काम ओर मोक्ष पुरुषार्थ कहे गए हैं। किन्तु अर्थ और काम पुरुषार्थ तो मात्र नाम के पुरुषार्थ हैं। अतः आत्म कल्याण के इक्छुक व्यक्ति को धर्म पुरुषार्थ के लिए सतत प्रयत्नशील बनना चाहिए।
संपूर्ण रुप से अर्थ पुरुषार्थ का त्याग मात्र साधु जीवन में संभव हैं, गृहस्थ जीवन में नही । गृहस्थ को अपनी आजीविका चलाने के लिए धन की आवश्यकता रहती हैं।
सद्गृहस्थ के लिए किसी के सामने हाथ फैलाने , भीख मांगना , किसी भी तरह उचित नहीं है। इस प्रकार की प्रवृत्ति से तो लोक में व्यक्ति और उसके धर्म की भी निंदा होती हैं । अतः उसके जीवन -निर्वाह के लिए धनार्जन करना पडता हैं।
फिर भी इतना ध्यान रखना चाहिए कि महापुरुषों ने धन को तो त्याज्य ही माना हैं, फिर भी सद्गृहस्थ को धन रखना ही पड़े तो धनार्जन का उपाय न्याय सम्पन्न ही होना चाहिय। यदि धन के पाप को न्याय और नीति की दीवार से सुरक्षित कर दिया जाय तो व्यक्ति अपने जीवन में अनेकविध पापों से बच सकता हैं ।
जीवन जीने के लिए धन मात्र साधन ही होना चाहिए ,साध्य नहीं । जिस व्यक्ति ने साधन को साध्य बना दिया हैं । उसका जीवन विविध पापों से मलिन हुए बिना नहीं रहता है अतः धन को जीवन का साधन ही रहने दे, उसे साध्य नही बनाए ।