जयगच्छाधिपति व्याख्यान वाचस्पति, वचन सिद्ध साधक, उग्र विहारी, बारहवें पट्टधर आचार्य प्रवर श्री पार्श्वचंद्र जी म.सा. के आज्ञानुवर्ती एस.एस.जैन समणी मार्ग के प्रारंभकर्ता डॉ. श्री पदमचंद्र जी म.सा. की सुशिष्याएं समणी निर्देशिका डॉ. समणी सुयशनिधि जी एवं समणी श्रद्धानिधि जी आदि ठाणा 2 के पावन सान्निध्य में श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ के तत्वावधान में गुवाहाटी नगरी के श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन भवन में एक विशाल धर्म सभा को सम्बोधित करते हुए समणी डॉ. सुयशनिधि जी ने कहा कि जीवन शाश्वत नहीं है।
सत्ता और दौलत शाश्वत नहीं है, रिश्ते नाते शाश्वत नहीं है – सब क्षणभंगुर है। इस परिवर्तनशील विश्व में केवल धर्म ही शाश्वत है। जो दुर्गति में गिरने वाले को धारण करें वह धर्म कहलाता है। महाभारत के अनुसार जिसका लक्षण अहिंसा है, वहीं धर्म है।
मनुष्य अपनी स्थिति में चल रहा है, पृथ्वी अपनी धुरी पर स्थिर है, सूर्य अपने मंडल में गतिशील है, हवा चल रही है, अग्नि जल रही है, ऋतुएं अपना अपना प्रभाव समयानुसार दिखा रही है – ये संतुलन धर्म के कारण से है। डॉ. समणी ने कहा कि शरीर के पोषण के लिए धन आवश्यक है और आत्मा के पोषण के लिए धर्म आवश्यक है।
धर्म उत्कृष्ट मंगल है। मंगल वह है जिससे विघ्न दूर हो। सांसारिक एवं आध्यात्मिक दोनों ही दृष्टि से मंगल का महत्व है। हर एक साधक का जीवन धर्ममय होने से खुशहाली गगन चूम लेती है। धर्म माता की तरह पोषण करती है। पिता की तरह रक्षा और मित्र की तरह प्रसन्न रखता है और संकट से बचाता है। डॉ. समणी ने कथानक के माध्यम से धर्म का महत्व समझाया।
अनेक श्रावक श्राविकाओं ने उपवास, एकासना एवं आयंबिल तप द्वारा अपनी आत्मा को कर्मों से दूर करने में तल्लीन है। निरंतर तपस्या की लड़ी सुचारू रूप से चल रही है। सभी धर्म अनुष्ठानों में बढ़ चढ़कर श्रावक श्राविकाएं लाभ ले रहे हैं।