चेन्नई. अण्णानगर में विराजित जय धुरंधरमुनि ने कहा कि धर्म को जीवन में उतारने के पहले उसके मर्म को जानना जरूरी है। एक व्यापारी धन कमाने को धर्म समझता है तो गृहिणी घर, परिवार की देखभाल को अपना धर्म मानती है।
एक डॉक्टर मरीज की देखभाल को धर्म मानता है तो एक सैनिक देश की सीमाओं की रक्षा करना अपना धर्म मानता है। ये सब व्यवहार धर्म की श्रेणी में ही आते हैं। धर्म को परिभाषित करते हुए किसी ने धर्म का फल बताने का प्रयास किया तो किसी ने उसके स्वाभाव की बात बताई। वस्तुत: धर्म चर्चा का विषय नहीं चर्या का विषय है।
धर्म उच्चारण की नहीं आचरण की चीज है। धर्म के महत्व को समझने वाला ही उसे धारण कर सकता है। धन तो ज्यादा से ज्यादा शरीर की रक्षा कर सकता है जबकि आत्मा की रक्षा धर्म से होती है। धर्म के बिना जीवन व्यर्थ है। धर्म के बिना मनुष्य पशु के समान है।
जन्म, जरा मरण से पीडि़त व्यक्ति के लिए धर्म ही शरणभूत है। संकट के समय भी धर्म ही रक्षा करता है। धर्म मात्र दिखावे के लिए नहीं, भातर से प्रकट होना चाहिए। जीव की रक्षा करना ही धर्म है। जहां सत्य संयम सरलता होती है वहां धर्म टिकता है।
धर्म सबसे उत्कृष्ट है, जिसके कारण सभी अवरोध दूर हो जाते हैं। धर्म का प्रभाव हमेशा रहता है, णर्म कभी खाली नहीं जाता है। मुनिगण यहां से विहार कर चूलैमेडु पहुंचेंगे।